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________________ ४६२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) के द्वि-स्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक स्पर्द्धक उत्तरोत्तर क्रमशः अनन्तअनन्तगुणे रस वाले होते हैं। गोम्मटसार में धाती-अघाती कर्मों के अनुसार विविध उपमाएँ गोमट्टसार कर्मकाण्ड के अनुभाग (रस) बन्ध के सन्दर्भ में घातिकर्मों की (फलदान)-शक्ति के चार विभाग किये गये हैं-लता, दारु (काष्ठ), अस्थि (हड्डी) और पत्थर। जैसे ये पदार्थ उत्तरोत्तर कठोर होते हैं, वैसे ही अशुभ कर्मों की शक्ति भी उत्तरोत्तर अधिकाधिक कठोर कर्मफलदायिनी समझनी चाहिए। इन चारों विभागों को कर्मग्रन्थ के अनुसार क्रमशः एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक नाम दिये जा सकते हैं। इनमें से लता-विभाग तो देशघाती ही है। दारुविभाग का अनन्तवां भाग देशघाती है और शेष बहुभाग सर्वघाती है। तथा अस्थि और पत्थर विभाग सर्वघातीरे ही हैं। पंचसंग्रह में अघातिकर्मों के पुण्य और पाप रूप दो विभाग करके शुभ (पुण्य) प्रकृतियों में गुड़, खांड, शक्कर और. अमृतरूप चार विभाग किये हैं। और अशुभ (पाप) प्रकृतियों में नीम, कंजीर, विष और हालाहल, यों चार विभाग किये गए हैं।३ इन विभागों को भी एकस्थानिक, द्विस्थानिक आदि नाम दिये जा सकते हैं। (१) प्रथम द्वार : रसबन्ध के चार प्रकार तारतम्यापेक्षा से कर्मों की सबसे कम अनुभाग-शक्ति को सर्वजघन्य (रसबन्ध) कहते हैं, सर्वजघन्य अनुभागशक्ति से ऊपर के एक अविभागी अंश से लेकर सबसे उत्कृष्ट अनुभाग तक के भेदों को अजघन्य (रसबन्ध) कहते हैं। इस प्रकार जघन्य और अजघन्य भेद में अनुभाग (रस) के अनन्त भेद गर्भित हो जाते हैं। तथा सबसे अधिक अनुभाग शक्ति (सर्वाधिक होने वाले रसबन्ध) को उत्कृष्ट (रसबन्ध) कहते हैं। और उसमें से एक अविभागी अंश कम शक्ति से लेकर सर्वजघन्य अनुभाग (रसबन्ध) तक के भेदों को अनुत्कृष्ट कहते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट भेद. में भी अनुभाग शक्ति १. घोसाढइ-निबुवमो असुभाण सुभाण खीर-खंडुवमो । एगट्ठाणो उ रसो, अणंत-गुणिया कमेणियरे ॥ -पंचसंग्रह १५० २. सग-पडिबद्धं जीवगुणं निरवसेस, घाइउ-विणासिउं सील जस्स अणुभागस्स सो अणुभागो सव्वघादी। (अपने से प्रतिबद्ध जीव को पूरी तरह से घातने का जिस अनुभाग का स्वभाव है, वह सर्वघाती है।) -कसायपाहुड ५/३-३/११ ३. (क) सत्ती य लदा-दारू-अट्ठी-सेलोवमाहु घादीणं । । दारू अणंतिम-भागोत्ति, देसघादी तदो सव्वं ॥ -गोम्मटसार (क.) १८० (ख) क्षपणासार भा. ४६५ ४. सुहपयडीणं भावा गुड-खंड-सियामयाण खलु सरिसा । इयरा दु णिंद-कंजीर-विस-हालाहलेण अहमाई || -पंचसंग्रह (प्रा.) ४/४८७; गो. क. मू. १८४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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