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________________ ४५८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) केवलज्ञानावरणीय को छोड़कर ज्ञानावरणीय कर्म की ४, केवलदर्शनावरणीय को छोड़कर दर्शनावरणीय कर्म की चक्षुदर्शनावरणीय आदि ३, संज्वलन कषाय चतुष्क और पुरुषवेद, इन १७ प्रकृतियों में एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतु:स्थानिक इन चारों ही प्रकार का रसबन्ध होता है, क्योंकि ये १७ प्रकृतियाँ देशघातिनी हैं । ' घातिकर्मों की जो प्रकृतियाँ सर्वघातिनी हैं, उनके तो सभी स्पर्धक सर्वघाती ही हैं; किन्तु देशघाती प्रकृतियों के कुछ स्पर्धक सर्वघाती और कुछ देशघाती होते हैं। जो स्पर्धक त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक रस वाले होते हैं, वे तो नियम से सर्वघाती होते हैं । किन्तु जो स्पर्धक द्विस्थानिक रस वाले होते हैं, वे देशघाती भी होते हैं, सर्वघाती भी, किन्तु एक- स्थानिक रस वाले स्पर्धक देशघाती ही होते हैं। यही कारण है कि इन १७ प्रकृतियों का एक, द्वि, त्रि और चतुःस्थानिक चारों प्रकार का रसबन्ध माना जाता है। इन १७ पाप - प्रकृतियों के सिवाय शेष ६५ पाप प्रकृतियों में द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक रसबन्ध होता है, मगर एक स्थानिक रसबन्ध नहीं होता। इसका कारण यह है कि शेष जो ६५ पापप्रकृतियाँ हैं, उनका नौवें गुणस्थान के संख्यात भाग के बीत जाने पर बन्ध नहीं होता; क्योंकि अशुभ प्रकृतियों में एकस्थानिक रसबन्ध नहीं होता । २ कारण यह है कि अशुभ प्रकृतियों में एक-स्थानिक रसबन्ध नौवें गुणस्थान के संख्यातभाग बीत जाने पर ही होता है। इन ६५ प्रकृतियों में केवल - ज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरण का भी समावेश है। लेकिन इन दोनों प्रकृतियों के बारे में यह समझना चाहिए कि इनका उक्त बन्ध दसवें गुणस्थान तक होता है। मगर इनके सर्वघातिनी होने से इनमें एक स्थानिक रसबन्ध नहीं होता । ३ शुभ प्रकृतियों में एकस्थानिक रसबन्ध क्यों नहीं ? शेष ४२ जो पुण्यप्रकृतियाँ हैं, उनमें भी एक-स्थानिक रसबन्ध नहीं होता। इसका कारण यह है कि जैसे ऊपर चढ़ने के लिए जितनी सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं, उतरने के लिये भी उतनी ही सीढ़ियाँ उतरनी पड़ती हैं, वैसे ही संक्लिष्ट - परिणामी जीव जितने संक्लेश के स्थानों पर चढ़ता है, विशुद्ध भावों के होने पर उतने ही स्थानों से १. आवरण- देसघादंतराय -संजलण-पुरिस-सत्तरसं । दुविध-भाव-परिणदा, तिविधा भावा हु सेसाणं ॥ २. चउ-ति-ठाणरसाई सव्व-विघाइणि होति फड्डाई । दुठाणियाण-मसाणि सघाईणि सेसाणि ॥ ३. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५ विवेचन, (पं. कैलाशचन्द्रजी) से पृ. १७६ (ख) कर्मग्रन्थ भा. ५ विवेचन, ( मरुधरकेसरीजी) से पृ. २३१, २३२ · Jain Education International For Personal & Private Use Only - गोम्मटसार, कर्मकाण्ड १८२ - पंचसंग्रह १४६ www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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