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रसबन्ध बनाम अनुभागबन्ध : स्वरूप और परिणाम ४५७
अप्रत्याख्यानावरण कषाय को पृथ्वी की रेखा की उपमा दी जाती है। जैसेतालाब में पानी सूख जाने पर जमीन में दरारें पड़ जाती हैं। और वे दरारें समय पाकर पुर जाती हैं। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण कषाय होती है कि इस कषाय की वासना भी अपने समय पर शान्त हो जाती है। इस कषाय का उदय होने पर अशुभ प्रकृतियों में भी त्रिस्थानिक रसबन्ध होता है और शुभप्रकृतियों में त्रिस्थानिक रसबन्ध होता है। अर्थात्- कटुकतम और मधुरतम ही अनुभागबन्ध होता है।
प्रत्याख्यानावरण कषाय को बालू या धूलि की लकीर की उपमा दी जाती है। जैसे - बालू में खींची हुई रेखा स्थायी नहीं होती, जल्दी ही पुर (मिट) जाती है । उसी तरह प्रत्याख्यानावरण कषाय की वासना को भी समझना चाहिए, कि वह भी अधिक समय तक नहीं रहती। इस कषाय का उदय होने पर पापप्रकृतियों में द्विस्थानिक अर्थात्-कटुकतर और पुण्यप्रकृतियों में त्रिस्थानिक रसबन्ध होता है।
संज्वलन कषाय की जल में खींची हुई रेखा ( जलरेखा) से उपमा दी जाती है। जैसे - जल में खींची हुई रेखा खींचने के साथ ही तत्काल मिटती जाती है, वैसे ही संज्वलन- कषाय की वासना भी अन्तर्मुहूर्त में ही नष्ट हो जाती है। इस कषाय का उदय होने पर पुण्य - प्रकृतियों में चतुःस्थानिक रसबन्ध होता है और पापप्रकृतियों में केवल एक-स्थानिक रसबन्ध होता है- अर्थात् कटुकरूप अनुभागबन्ध होता है । '
इस प्रकार अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषाय से अशुभ प्रकृतियों में क्रमशः चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक, द्विस्थानिक और एकस्थानिक रसबन्ध होता है, जबकि शुभ-प्रकृतियों में द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और . चतुःस्थानिक रसबन्ध होता है।
किस प्रकृति में, कितने प्रकार का रसबन्ध होता है और क्यों ?
अनुभाग (रस) बन्ध के चारों प्रकारों के कारण चारों कषायों को बतलाकर अब आठ कर्मों की उत्तर - प्रकृतियों में से किस प्रकृति में कितने प्रकार का रसबन्ध होता है ? इसे कर्मग्रन्थ के अनुसार बता रहे हैं
बन्ध योग्य कुल १२० प्रकृतियों में से ८२ अशुभ (पाप) प्रकृतियाँ और ४२ शुभ (पुण्य) प्रकृतियाँ हैं । २ इन ८२ पाप - प्रकृतियों में से अन्तरायकर्म की ५,
१. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५ विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) से, पृ. १७४ -१७५ गिरि-महि-रय जलरेहा-सरिस - कसाएहिं ॥६३॥
(ख)
चउठाणाइ असुहा सुहन्नहा, विग्घदेस -घाइ - आवरणा ।
पुम-संजलणिग-दु-ति-चउ-ठाण-रसा-सेस दुगमाई ॥६४॥
- कर्मग्रन्थ भा. ५
२. वर्णचतुष्क (वर्णादि चार) पुण्य और पाप दोनों रूप होने से दोनों में ग्रहण किया जाता है। अतः जब उन्हें पुण्य-प्रकृतियों में ग्रहण करें तब पाप-प्रकृतियों में, और पाप-प्रकृतियों में ग्रहण करें तो पुण्य प्रकृतियों में नहीं ग्रहण करना चाहिए ।
- सं.
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