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________________ रसबन्ध बनाम अनुभागबन्ध : स्वरूप और परिणाम ४५३ चार-चार स्थानों में हो जाता है। इन दोनों प्रकार के अनुभाग बन्धों की चार-चार अवस्थाओं को इस प्रकार समझाया गया है-नीम से तुरंत निकाला हुआ रस कडुआ होता है। फिर उस रस को अग्नि पर पकाया जाता है तो वह कटुकतर हो जाता है। वह सेर का आधा सेर रह जाता है। तथा वही रस और अधिक उबालने से सेर का तिहाई रह जाता है, इसलिए वह रस कटुकतम हो जाता है। और सेर का पावभर रहने पर वह रस अत्यन्त कटुक हो जाता है। इसी प्रकार अशुभ प्रकृतियों का तीव्र रस (अनुभाग) भी चार प्रकार का हो जाता है-तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम और अत्यन्त तीव्र। अशुभ और शुभ प्रकृतियों के मंद रस की चार-चार अवस्थाएँ इसी प्रकार ईख को पेरने से जो रस निकलता है, वह स्वभाव से ही मधुर और स्वादिष्ट होता है। उस रस को आग पर पकाने पर जब वह सेर का आध सेर रह जाता है तो मधुरतर हो जाता है। फिर सेर का तिहाई रहने पर मधुरतम हो जाता है, और सेर का पावभर रहने पर अत्यन्त मधुर हो जाता है। इसी प्रकार शुभप्रकृतियों का तीव्ररस भी चार प्रकार का हो जाता है-तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम और अत्यन्त तीव्र। इसी प्रकार उस कटुक या मधुर रस में एक चुल्लू भर पानी डाल देने से वह मन्द हो जाता है, उसी में एक गिलासभर पानी डाल देने से वह मन्दतर हो जाता है, फिर एक लोटाभर पानी डाल देने से वह मन्दतम हो जाता है, तथा घडाभर पानी डाल देने से वह अत्यन्त मन्द हो जाता है। इसी प्रकार अशुभ और शुभ प्रकृतियों का मन्दरस भी क्रमशः मन्द, मन्दतर, मन्दतम और अत्यन्त मन्द, यों चार प्रकार का हो जाता है। रस के तीव्रमन्द-बन्ध का कारण कषाय की तीव्रता-मन्दता इस प्रकार की तीव्रता और मन्दता का कारण कषाय की तीव्रता और मन्दता है। तीव्रकषाय से अशुभप्रकृतियों में तीव्र और शुभ प्रकृतियों में मन्द अनुभाग (रस) बन्ध होता है। तथा मन्द कषाय से अशुभ प्रकृतियों में मन्द और शुभ प्रकृतियों में तीव्र अनुभाग (रस) बन्ध होता है। शुभाशुभ कर्मप्रकृतियों की तीव्रादि तथा मंदादि अवस्थाएँ - इसी तथ्य को दूसरी तरह स्पष्ट रूप से समझाया गया है-संक्लेश-परिणामों की वृद्धि, और विशुद्ध परिणामों की हानि होने से, तीव्र कषायोदय से बयासी प्रकार की अशुभकर्म (पाप) प्रकृतियों का तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम और अत्यन्त उत्कृष्ट-तीव्र १. (क) पंचम कर्मग्रन्य (मरुधरकेसरी) से पृ. २२७ ___ (ख) पंचम कर्मग्रन्थ (प. कैलाशचन्द्रजी) से पृ. १७२ २. (क) कर्मग्रन्थ (मरुधरकेसरी) भा. ५ से पृ. २२८ (ख) कर्मग्रन्थ भा. ५ (पं. कैलाशचन्द्रजी) से पृ. १७२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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