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________________ ४५२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) हैं। इस अपेक्षा से कर्मस्कन्ध भी समस्त जीवराशि से अनन्तगुणे रसाणुओं से युक्त होता है। ये रसाणु भी जीव के तीव्र-मन्द शुभाशुभ भावों का निमित्त पाकर मधुरफलदायक या कटुफलदायक शक्ति में परिणत होते हैं, और उदय में आने पर फल देते हैं। 'पंचसंग्रह' में रसाणु को गुणाणु या भावाणु भी कहा गया है। पांच शरीरों के योग्य परमाणुओं की रसशक्ति का बुद्धि द्वारा खण्ड करने पर जो अविभागी एक अंश होता है, उसे गुणाणु या भावाणु कहते हैं । ' कर्मपुद्गलों में सर्वजीवों से अनन्तगुणे भावाणु या रसाणु अनुभाग (रस) के कारण जीव के कषायोदयरूप परिणाम दो प्रकार के होते हैंएक शुभ और दूसरे अशुभ। शुभ परिणाम असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर होते हैं और अशुभ परिणाम भी उतने ही होते हैं। एक-एक परिणाम द्वारा गृहीत कर्म-पुद्गलों में स्वर्वजीवों से अनन्तगुणे भावाणु या रसाणु होते हैं । २ अशुभ- प्रकृतियों का अनुभाग नीम्बरस और शुभप्रकृतियों का इक्षुरस के समान अनुभाग या रस दो प्रकार का होता है - तीव्र और मन्द । ये दोनों ही प्रकार का अनुभाग अशुभप्रकृतियों में भी होता है और शुभप्रकृतियों में भी। अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग को नीम आदि वनस्पतियों के कटुरस की उपमा दी जाती है। आशय यह है कि जैसे नीम का रस कडुआ होता है, वैसे ही अशुभ - प्रकृतियों का रस भी बुरा समझा जाता है, क्योंकि अशुभ प्रकृतियाँ अशुभ फल ही देती हैं। तथैव शुभप्रकृतियों के अनुभाग (रस) को ईख के रस की उपमा दी जाती है। जैसे ईंख का रस मधुर और स्वादिष्ट होता है, वैसे ही शुभप्रकृतियों का रस भी सुखदायक होता है । ३ द्विविध प्रकृतियों के तीव्र और मन्द रस की चार-चार अवस्थाएँ शुभ और अशुभ इन दोनों ही प्रकार की प्रकृतियों के तीव्र और मन्द रस की प्रत्येक की चार-चार अवस्थाएँ होती हैं। वे क्रमशः इस प्रकार हैं - ( १ ) तीव्र, (२) तीव्रतर, (३) तीव्रतम और (४) अत्यन्त तीव्र; तथा ( १ ) मन्द, (२) मन्दतर, (३) मन्दतम और (४) अत्यन्त मन्द । अशुभ और शुभ प्रकृतियों की तीव्र रस की चार-चार अवस्थाएँ यद्यपि कषायों की तीव्रता - मन्दता को लेकर प्रत्येक कर्म की असंख्य डिग्रियाँ होने से तीव्र - मन्द - रस के असंख्य प्रकार हो सकते हैं; किन्तु उन सबका समावेश इन १. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५ विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) से, पृ. २२0-२२१ (ख) पंचण्ह सरीराणुं परमाणूणं मईए अविभागो । कप्पियगाणेग॑सो गुणाणु भावाणु वा हति ॥ २. जीवस्सज्झवसाणा, सुभासुभासंखलोकपरिमाणा । सव्व-जीयाणंतगुणा एक्केके होंति भावगुणा ॥ ३. (क) पंचम कर्मग्रन्थ ( मरुधरकेसरी) से, पृ. २२७ (ख) पंचम कर्मग्रन्थ (पं. कैलाशचन्द्रजी) से पृ. १७२ Jain Education International For Personal & Private Use Only - पंचसंग्रह गा. ४१७ - पंचसंग्रह गा. ४३६ www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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