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________________ ४३८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) ___ कई लोग बलवान् और निर्भय होते हैं, वे भी शुभनामकर्मरूप पुण्यबन्ध से होते हैं। ऐसा पुण्यबन्ध होता है-दीनों, अनाथों, अभावपीड़ितों, पद-दलितों एवं पिछड़े लोगों पर अनुकम्पा करके उन्हें सहायता देने से, उनके कष्टों को दूर करने से, उनके आंसू . पोंछने से, संकटापन्न व्यक्तियों, बाढ़ भूकम्प आदि प्राकृतिक प्रकोपों से पीड़ित व्यक्तियों को अन्न-वस्त्रादि का दान करने से तथा निर्भय होकर अन्याय-अत्याचार-पीड़ितों और शोषितों को न्याय दिलाने से, दूसरों को भयभीत न करने, कायर न बनाने तथा पशुओं, बालकों आदि को नहीं डराने-धमकाने से।' पुण्यबन्ध के कारण सुखशान्ति सम्पन्न, सदाचारी एवं ऋद्धिमान धनाढ्य . कई लोग धनाढ्य, सदाचारी, ऋद्धिमान एवं सुख-शान्ति सम्पन्न होते हैं, उसके पीछे भी अमुक प्रकार का पुण्यबन्ध कारण है। पुण्यबन्ध का वह प्रकार है-निर्धनों, दरिद्रों, अभावपीड़ितों, अनाथों, असहायों, अनाश्रितों और अपंगों आदि को अन्न, पानी, वस्त्र और आश्रय आदि की निःस्वार्थभाव, प्रशंसा-प्रतिष्ठा की आशा रखे बिना सहायता देना, प्राप्त द्रव्यों या साधनों पर ममता-मूर्छा कम करके धर्मोन्नति, सेवा, सत्कर्म एवं सदाचार-प्रचार करने आदि सुकृत्यों में अपनी सम्पत्ति का सदुपयोग करना, दूसरे के पास धन-सम्पत्ति, साधन-सामग्री आदि की प्रचुरता एवं वृद्धि देखकर ईर्ष्या-द्वेष न करना, उदारता रखना, स्वार्थवृत्ति कम करना, ये और ऐसे ही कार्य पुण्यबन्ध के हैं। भगवतीसूत्र में भी अनुकम्पा, सेवा, परोपकारादि शुभ प्रवृत्तियाँ पुण्योपार्जन की कारण बताई गई हैं।२ १. (क) इस्सरिय-अमदेण। -भगवतीसूत्र ८/९/४३ (ख) इस्सरिय-विसिट्ठिया। ___-प्रज्ञापना. २३/१/१६ (ग) आत्मनिन्दा परप्रशंसा, सद्गुणोद्भावन, असद्गुणाच्छादन -तत्त्वार्थसूत्र (घ) पाणाणुकंपाए, भूयाणुकंपाए, जीवाणुकंपयाए, सत्ताणुकंपयाए.। -भगवतीसूत्र ७/६/९ (ङ) कायसुहया, बलविसिडिया । ।-प्रज्ञापना २३/१/१२, १६ (च) बल-अमदेणं -भगवती ८/९/४३ २. (क) सया सच्चेण संपन्ने, मेत्तिं भूएहिं कप्पए । -सूत्रकृतांग-१५/३ (ख) अमच्छरियाए । -स्थानांग ४/४/३९ (ग) तुलिया विसेसमादाय, दयाधम्मस्स खतिए । विप्पसीएज्ज मेहावी, तहाभएण अप्पणा ॥ -उत्तराध्ययन ५/३० (घ) अन्नपुण्णे, पाणपुण्णे, लयणपुण्णे, सयणपुण्णे, वत्थपुण्णे । -ठाणांग. ९/२२ (ङ) लाभ-अमदेणं । -भगवती ८/९/४३ (च) लाभ-विसिट्ठिया । -प्रज्ञापना २३/१/१७ (छ) मैत्रीभाव, सहायता प्रदान-विनय-भक्ति, एकाग्रता तथा अनुकम्पाभाव से । -भगवती ८/९/३७-३८, ७/१०/१२१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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