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पाप और पुण्य कर्मप्रकृतियों का बन्ध ४३७
इसी प्रकार घ्राणेन्द्रिय की प्रबलता एवं स्वस्थ सुशोभन नासिका प्राप्त होती है, अमुक प्रकार के पुण्यबन्ध से। वह होता है - सुगन्धित पदार्थों में गृद्ध-आसक्त न होने से, नासिकाहीनों के प्रति सहानुभूति और उन्हें सहायता देने से एवं साधु-साध्वी आदि श्रेष्ठ-विरक्त त्यागी जनों के आगे मस्तक झुकाने से। '
कई लोग अपने हाथों से शुभभावनापूर्वक निरहंकारभाव से दान देते हैं, सच्चा लेख लिखते हैं, धर्मवृद्धिकारक आध्यात्मिक विचारोत्तेजक लेख, कथा, काव्य एवं निबन्ध लिखते हैं, आज्ञा प्राप्त करके या दूसरे की स्वीकृति - अनुमति से वस्तु ग्रहण करते हैं, हाथों से किसी को कष्ट, दुःख, पीड़ा या संताप नहीं देते, सही लेन-देन करते हैं, हस्तहीन की सहायता आदि करते हैं, इत्यादि कारणों से शुभ नामकर्मरूप पुण्य प्रकृतियों का बन्ध होने से उन्हें तत्फलस्वरूप स्वस्थ एवं बलिष्ठ हाथ प्राप्त होता
है।
कई स्वयं दुर्व्यसनों के या अनैतिक कुमार्ग पर नहीं चलते, अन्य लोगों को उस कुमार्ग पर जाने से रोकते हैं; दृश्यमान जीव-जन्तुओं को अपने पैरों से कुचलने-दबने से रोकते हैं, लूले लंगड़े एवं अपाहिज को सहानुभूतिपूर्वक सहायता देते हैं; इत्यादि कारणों से वे भी शुभनामकर्म की प्रकृतियाँ का बन्ध करते हैं, जिसके फलस्वरूप उन्हें स्वस्थ एवं सशक्त पैर मिलते हैं । २
इसी प्रकार अधिकांश लोग सम्मान चाहते हैं, परन्तु आगमकारों ने बताया है कि अरिहंत, आचार्य, साधु-साध्वीगण, श्रावक-श्राविका, सम्यग्दृष्टि, मार्गानुसारी एवं धर्मिष्ठ गुणसम्पन्न आत्माओं का गुणगान करने, उनके सद्गुणों को अपने जीवन में यथाशक्ति उतारने से, उनकी सेवा, विनय श्रद्धा-भक्ति करने से, उनकी प्रशंसा एवं कीर्ति सुनकर मन में प्रमुदित होने से, उन्हें वन्दन - नमन करने - कराने से, स्वयं सद्गुणी होते हुए भी नम्र एवं निरभिमानी रहने से व्यक्ति यशः कीर्तिनाम कर्मरूप पुण्य प्रकृति को बांधता है, और उसके फलस्वरूप सम्मान प्राप्त करता है।
दीन-दुखियों को रुग्णावस्था में देखकर दयाभाव लाने एवं उन्हें सुखी बनाने, साधु-साध्वी आदि महान् आत्माओं को औषध का दान देने दिलाने एवं उनकी यथोचिंत सेवा करने से शुभ एवं स्वस्थ शरीर नामकर्मरूप पुण्यबन्ध होता है जिसके फलस्वरूप मिलता है - स्वस्थ, सशक्त एवं सुशोभन शरीर ।
१. (क) इट्ठा गंधा, इट्ठा लावण्णं ।
(ख) मण्णा गंधा, मणोसुहया, वइसुहया, कायसुहया ।
२. (क) इट्ठा फासा, इट्ठा लावण्णं ।
(ख) मणुण्णाफासा, मणोसुहया, वइसुहया, कायमुहया । (ग) अदुक्खणयाए, अपरियावणयाए, अणुकंपाए । (घ) काय उज्जुययाए ।
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- प्रज्ञापना २३/१/१५, १२
- वही, २३/१/१५, १२
- भगवतीसूत्र ७/६/९
- भगवती ८/९
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