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________________ पाप और पुण्य कर्मप्रकृतियों का बन्ध ४३५ पंच-परमेष्ठियों के प्रति श्रद्धा-भक्ति, समस्त जीवों के प्रति करुणा और पवित्र चारित्री के प्रति अनुराग करने से पुण्यासव होता है।' यह पहले कहा जा चुका है कि पुण्य और पाप कर्म के बन्ध या आसव का निर्णय किसी वस्तु या क्रिया के आधार पर नहीं होता, अपितु कर्ता के भावों (परिणामों) के आधार पर भी होता है। इसलिए किसी को सुख या दुःख उपजाने मात्र से भी पुण्य या पाप का आस्रव या बन्ध नहीं हो जाता, उसके पीछे कर्ता के आशय के साथ-साथ कभी-कभी उस प्रवृत्ति (क्रिया या कर्म) का शुभाशुभत्व या मंगलामंगलकारित्व भी देखा जाता है। किसी दूसरे जीव को हानि या क्षति पहुँचा कर किसी को सुख उपजाने से कार्य शुभ नहीं रहता, वह कार्य मांगलिक न होकर अमांगलिक हो जाता है, अतः उस कार्य से पुण्यबन्ध नहीं होता। नन्दीसूत्र की वृत्ति में एक 'दुःखमोचक' मत का वर्णन है। दुःखमोचक मतानुसार 'किसी अत्यन्त दुःख पाते हुएं व्यक्ति का दम घोट देने से उसे उक्त दुःख से छुटकारा मिल जाता है और वह मरकर स्वर्ग के सुख पाता है।' परन्तु यह कार्य भी अशुभ परिणाम तथा अशुभत्व से युक्त होने के कारण पुण्यबन्ध का कारण नहीं हो सकता। ___ इसी प्रकार एक दयार्द्र चिकित्सक निःस्वार्थभाव से, किसी मुनि के फोड़े की चीर-फाड़ करके मरहम-पट्टी करके उसे रोग-मुक्त करता है। चीर-फाड़ करते समय मुनि को दुःख होता है, परन्तु उस चिकित्सक का भाव मुनि को दुःख देने का नहीं है। इसलिए दुःखोत्पादन के इस कारणमात्र से चिकित्सक के पापकर्म का बन्ध नहीं होता, अपितु शुभभाव एवं शुभकार्य होने के कारण पुण्यानव एवं पुण्यबन्ध होता है। ___ 'आप्तमीमांसा' में बताया गया है कि यदि ऐसा एकान्त माना जाए कि दूसरों को सुख देने से पुण्यबन्ध और दुःख देने से पापबन्ध होता है, तब तो अचेतन दूध आदि को पुण्य का और कांटे आदि को पाप का बन्ध होना चाहिए, क्योंकि प्राणियों के ही पुण्य-पाप का बन्ध होता है, तब तो वीतरागी को भी पुण्य या पाप का बन्ध होना चाहिए, क्योंकि वे भी दूसरों के सुख या दुःख में (संयम-तप-व्रतादि का उपदेश देकर) निमित्त होते हैं। यदि ऐसा कहें कि स्वयं को कष्ट देने से पुण्यबन्ध और सुख देने से पापबन्ध होता है तो विद्वान् और वीतरागी मुनि को भी पुण्य-पाप का बन्ध १. (क) ज्ञानसार २/३, ५, ७ (ख) काय-वाङ्-मनसामृजुत्वमविसंवादन च। -सर्वार्थसिद्धि ६/२३ (ग) व्रतात् किलानवेन पुण्यम् । -तत्त्वार्थसार ४/५९६ (घ) अर्हदादौ पराभक्तिः कारुण्ये सर्वजन्तुषु । पावने चरणे रागः, पुण्य-बन्ध-निबन्धनम् ॥ -योगसार अ. ४/३७ २. (क) सर्वार्थसिद्धि ६/११/३३० । (ख) कर्मविज्ञान भा. ३, खण्ड ६, पृ. ६३५, ६३६ (ग) देखें, नन्दीसूत्र, मलयगिरिवृत्ति (घ) आप्त-मीमांसा ९२ से ९५ तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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