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४३४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
(ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें गुणस्थानवर्ती जीवों के सिवाय) तीनों काल में पापकर्मों का बन्ध करते हैं। इस सम्बन्ध में हम अगले खण्ड में विशेष प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे।
पापकर्म के सम्बन्ध में 'पुण्य और पाप : आनव के रूप में' शीर्षक निबन्ध में हमने इससे सम्बन्धित अनेक पहलुओं पर विस्तृत प्रकाश डाला है। इसलिए इस विषय में पिष्टपेषण करना उचित नहीं है । '
पुण्यकर्म की प्रकृतियाँ और उनका बन्ध
तत्त्वार्थसूत्र में ‘शुभः पुण्यस्य' कह कर शुभ योग को पुण्य- आम्रव कहा गया है, और आनव के उत्तरक्षण में प्रशस्त राग से बन्ध होता है। इसका आशय सर्वार्थसिद्धि में स्पष्ट किया गया है कि शुभ परिणामों (भावों) से निष्पन्न योग शुभ है। 'प्रवचनसार' में इसी का निष्कर्ष दिया गया है - 'पर के प्रति शुभपरिणाम पुण्य है। ' 'द्रव्यसंग्रह' और 'मूलाचार' के अनुसार- शुभ परिणामों से युक्त जीव पुण्यरूप है, और वह पुण्यरूप तभी होता है, जब सम्यक्त्व, श्रुतज्ञान, व्रतरूप परिणाम, तथा कषायनिग्रहरूप गुणों से परिणत आत्मा हो । पुण्यानव के कारणों का उल्लेख करते हुए 'पंचास्तिकाय' में कहा गया है - जिस जीव में प्रशस्त रांग है, जिसके परिणाम अनुकम्पा से युक्त हैं, जिसके चित्त में कलुषता नहीं है, उस जीव के पुण्यानव ( उत्तरक्षण में पुण्यबन्ध) होता है। मूलाचार में भी इसी से मिलते जुलते कारण बताए हैं- " जीवों के प्रति अनुकम्पा, शुद्ध मन-वचन-काय की क्रिया, सम्यग्दर्शन- ज्ञानरूप उपयोग, ये पुण्य कर्मानव ( पुण्यकर्मबन्ध) के कारण हैं। "२
'ज्ञानसार' के अनुसार 'यम (व्रत), प्रशम, निर्वेद (वैराग्य), तत्त्वों का चिन्तन आदि का जिस मन में आलम्बन हो, जिस मन में मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य ये चार भावनाएँ हों, वही मन शुभास्रव (पुण्य) को उत्पन्न करता है। ' 'सर्वार्थसिद्धि' के अनुसार - मन, वचन और काय की सरलता तथा इनकी अविसंवादिता, ये शुभ योग ( पुण्यानव-हेतुक) के कारण हैं। 'तत्त्वार्थसार' में व्रताचरण को पुण्यकर्मानव का कारण बताया है। 'योगसार' में कहा गया है - "अरहंत आदि
१. देखें - कर्मविज्ञान छठा खण्ड में पुण्य और पाप : आस्रव के रूप में, पृ. ६३१ से ६८७ तक २. (क) तत्त्वार्थसूत्र ६ / ३
(ख) शुभ परिणाम - निर्वृतो योगः शुभः ।
(ग) सुह-परिणामो पुण्णं ।
(घ) द्रव्यसंग्रह ३८ / १५८
(ङ) मूलाचार २३४ (च) पंचास्तिकाय १३२, १३५ (छ) मूलाचार २३५
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- सर्वार्थसिद्धि ६/३
- प्रवचन सार गा. १८१
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