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________________ | विषय-सूची । 865523 सप्तम खण्ड कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या क्र. सं. शीर्षक ९९ १२० १३४ . १४३ कर्मबन्ध का अस्तित्व २. दुःख-परम्परा का मूलः कर्मबन्ध ३. कर्मबन्ध का विशद स्वरूप ४. कर्मबन्ध : क्यों, कब और कैसे? कर्मबन्ध का मूल स्रोत : अध्यवसाय कर्मबन्ध के बीज : राग और द्वेष ७. कर्मबन्ध का सर्वाधिक प्रबल कारण : मिथ्यात्य ८. कर्मबन्ध के मुख्य कारण : एक अनुचिन्तन . बन्ध के संक्षेप-दृष्टि से दो कारण : योग और कषाय १०. कर्मबन्ध की मुख्य चार दशाएँ कर्मबन्ध के प्रकार और स्वरूप १२. कर्मबन्ध के अंगभूत चार रूप १३. प्रदेशबन्ध : स्वरूप, कार्य और कारण १४. प्रकृतिबन्ध : मूल प्रकृतियाँ और स्वरूप १५. मूल प्रकृतिबन्ध : स्वभाव, स्वरूप और कारण १६. उत्तरप्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-१ १७. उत्तरप्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-२ १८. उत्तरप्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-३ उत्तरप्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-४ २०. उत्तरप्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-५ २१. घाती और अघाती कर्म-प्रकृतियों का बन्ध २२. पाप और पुण्य कर्म-प्रकृतियों का बन्ध २३. रसबन्ध बनाम अनुभागबन्ध : स्वरूप और परिणाम २४. स्थितिबन्ध : स्वरूप कार्य और परिपएम परिशिष्टः प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची १५५ १७२ १८५ १९७ २०९ २४७ २७९ २९३ १९. ३३५ ३५७ ४00 ४१७ ४४३ ५०६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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