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________________ (४३) . "सिद्धान्त" वाद आदि से भिन्न पड़ता है। वैज्ञानिक पद्धति निगमनात्मक व आगमनात्मक दोनों होती है। "कर्म विज्ञान" की भी यही रचना-पद्धति है। ग्रन्थ का संबंध जैन धर्म और दर्शन के साथ-साथ तुलनात्मक स्तर पर कर्म का विवेचन करना है। आधुनिक चिन्तन धारा की यही विशेषता है कि ऐसे महत्वपूर्ण विषय का तुलनात्मक अध्ययन किया जाये। इसके साथ-साथ आचार्यश्री ने कर्म पर उपलब्ध प्रायः सभी आगम व अन्य ग्रन्थों का संदर्भगत प्रासंगिक व मौलिक उपसंग्रहण किया है। अंतिम अनुबंध चतुष्टय प्रयोजन है। ऐसी रचनाएं स्वान्तः सुखाय होने के साथ-साथ बहुजन हिताय भी होती हैं। इनका उद्देश्य होता है विषय प्रतिपादन के साथ-साथ उसकी ऐसी विवृति, जो विषय की व्यापक परिधि में उसके सर्वांगीण निरूपण से अनुसंधान की प्रक्रिया में एक प्राणाणिक संदर्भ ग्रन्थ बन सके। कर्म पर विपुल ग्रन्थ उपलब्ध हैं। किसी भी अध्येता के लिए उन सबका अध्ययन दुष्कर और दुर्लभ है। मेरी धारणा है कि “कर्म विज्ञान" एक ऐसा मापक ग्रन्थ है, जिसमें इन सभी ग्रन्थों का सार समाविष्ट किया गया है, और साथ में नूतन उद्भावनाएं भी प्रस्तुत हैं। आचार्यश्री देवेन्द्र मुनि एक प्रज्ञापुरुष हैं उनका श्रमण अधीत और अनुपम विद्या संपन्न, एवं ज्योतिर्मय है। मेरा विश्वास है कि “कर्म विज्ञान ग्रन्थ” उनके कृतित्व का अनुपम उदाहरण तो है ही पर साथ में जैन धर्मगत कर्म का सर्वांगीण आलोचनात्मक मौलिक, मूल्यांकन भी है। मैं उन्हें अपनी सश्रद्ध प्रणति देता हूँ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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