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________________ पाप और पुण्य कर्मप्रकृतियों का बन्ध ४३१ पुत्रहीनता भी पापकर्मबन्ध के कारण • कई लोग पुत्रहीन देखे जाते हैं, वे पुत्र के लिए तरसते हैं, फिर भी सुपुत्र नहीं मिलता, इसके पीछे निम्नोक्त पापकर्मबन्ध कारण हैं-मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के अनाथ बच्चों को मारना, अण्डों को फोड़ना, पुत्रवन्तों से द्वेष तथा ईर्ष्या रखना, गायभैंस आदि के बच्चों को उनकी माता से विलग करना, उन्हें कम दूध पिलाना, बंदरी आदि के बच्चों को पकड़कर उनकी माता से अलग कर देना आदि से लाभान्तराय, असातावेदनीय आदि पापकर्मों को बन्ध होता है। वही पुत्रहीनता का कारण है। कृपणता, कुपुत्र, कुभार्या की प्राप्ति कैसे ? इसी प्रकार कुपुत्र एवं कुभार्या आदि की प्राप्ति भी अमुक पापकर्मबन्ध के कारण होती है। कृपण होना भी इसी प्रकार दानान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, मोहनीय आदि पापकर्मों के बन्ध का परिणाम है। सहोदर भाइयों में वैमनस्य का कारण कई जगह हम देखते हैं कि सहोदर भाइयों में या सहोदर भाई-बहनों में परस्पर कलह, मनमुटाव, वैमनस्य, वैर-विरोध उत्पन्न हो जाता है, और वह बढ़ता ही जाता है, किसी भी प्रकार से शान्त नहीं होता, उसके पीछे भी पूर्वबद्ध पापकर्म कारण है। वह पापकर्म है-हाथी, घोड़े, भैंसे, मेंढ़े, सांड, कुत्ते, मुर्गे तथा मनुष्यों आदि को परस्पर लड़ाना और उनकी लड़ाई देखकर प्रसन्न होना, छोटी-सी बात पर झगड़ा करने पर आमादा हो जाना आदि।२ अल्पायु होने के ये कारण हैं। स्थानांगसूत्र में बताया गया है कि जो प्राणियों की घात करता है, झूठ बोलता है, तथारूप श्रमण और माहन को अकारण अप्रासुक (सचित्त) और अनैषणीय अमनोज्ञ असाताकारी चतुर्विध आहार देता है, किसी की आजीविका भंग करता है; और किसी धार्मिक आध्यात्मिक व्यक्ति पर दोषारोपण करके उनके प्रति लोकश्रद्धा घटाने का प्रयत्न करता है, यह उक्त पापकर्मों का बन्ध करके उसके फलस्वरूप अल्पायुष्क होता है। १. (क) लाभातराए -प्रज्ञापना २३/१/१७ - (ख) लाभतराएणं -भगवतीसूत्र ८/९/४४ ' (ग) परदुक्खणयाए, परसोयणयाए, परजूरणयाए, परतिप्पणयाए। -भगवतीसूत्र ७/६/१0 (घ) मणोदुहया। -प्रज्ञापना २३/१/१२ (E) कसाय वेयणिज्ने । -प्रज्ञापना २३/१/१३ २. सुदृष्टितरंगिणी, ध्यानकल्पतरु एवं शुभाशुभकर्मफल आदि में देखे । ३. तिहिं ठाणेहिं जीवा अप्पाउत्ताए कम पगरेंति, तं.-पाणे अइवाइत्ता भवइ, मुसं वइत्ता भवइ, तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभित्ता भवई । -स्थानांग, स्था ३, उ.१, सू. ७ . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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