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________________ ४३० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) दम्भी और धूर्त भी पापकर्मबन्ध के कारण जो व्यक्ति धर्म करने का दिखावा करता है, दान-पुण्य के कायों में छल करता है, जप-तप की साधना में कपट करता है। थोड़ा-सा करके बहुत बताता है, वह उक्त माया-मोहनीय पापकर्म का बन्ध करके उसके फलस्वरूप धूर्त बनता है। चोर किस पापकर्मबन्ध के कारण बनता है ? जो चौर्यकर्म को अच्छा समझता है, चोरों को सहायता देता है, चुराई हुई वस्तु को खरीदता या रख लेता है, चौर्यकला सिखाता है, चोर की प्रशंसा करता है, वह उक्त पापकर्मबन्ध के फलस्वरूप चोर बन जाता है।' पापात्मा बनता है, पापकर्मबन्ध के कारण जो व्यक्ति लोगों को धर्मभ्रष्ट करता है, सद्धर्म की निन्दा करके कुधर्म की प्रशंसा और महिमा करता है, तथा अधार्मिक-पापीजनों की संगति करता है, वह व्यक्ति उक्त पापकर्मबन्ध के फलस्वरूप स्वयं पापात्मा बन जाता है। कसाई और हत्यारा भी पापकों के कारण बनता है कई व्यक्ति कसाई, हत्यारे और हिंसाजीवी होते हैं, वे भी पापकर्मबन्ध के फलस्वरूप होते हैं, वे पापकर्म हैं-हिंसाजनक कृत्यों की प्रशंसा करना, हिंसा-हत्या, आतंक, उपद्रव आदि करने की कला सिखाना, हिंसाविषयक ग्रन्थों की रचना, तथा दयाधर्म की निन्दा करना आदि। अनार्य देश में जन्म लेने के कारण कई लोग अनार्य देश में जन्म लेते हैं, वहाँ उन्हें धर्म के सुसंस्कार नहीं मिल पाते; उसके पीछे भी निम्नोक्त पापकों का बन्ध कारण है। जैसे-अनार्यो-म्लेच्छों के कार्यों की प्रशंसा करने से, उनकी-सी वेशभूषा धारण करने से, किसी पर झूठा इलजाम लगाने से, म्लेच्छों की सुख-सम्पदा को अच्छी समझने से तथा आर्यों का देश, येश, संस्कृति, एवं सम्यता छोड़कर अनार्यकर्म, वेश, संस्कृति एवं सभ्यता को अपनाने से। (ग) परात्म-निन्दा-प्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नीचर्गोत्रस्य । (घ) बलमदेणं । (ङ) बल-विहीणया । (च) तिव्वचरित्त-मोहणिज्जाए । (छ) नोकसाय-वेयणिज्जे । (ज) भय-वेयणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं । (अ) शुभाशुभकर्मफल (आत्मनिधिमुनि त्रिलोक) से पृ. १५, १७ १. तेनाहडे तक्करप्पओगे । -तत्त्वार्यसूत्र -भगवती ८/९/४0 -प्रज्ञापना २३/१/४६ -भगवती ८/९/४० -प्रज्ञापना २३/१/१३ -स्थानांगसूत्र ४/४/२३ -आवश्यकसूत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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