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________________ ४१८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) होती है। अनन्त बार गर्भ में आना पड़ता है। क्रोधादि पापकर्मों का प्रत्यक्ष फल बताते हुए 'दशवैकालिक सूत्र' में कहा गया है - क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाशक है, माया मित्रता को नष्ट कर देती है और लोभ सर्वनाश कर देता है। भगवद्गीता में स्पष्ट कहा गया- काम, क्रोध और लोभ ये तीन आत्मा का नाश (गुणों का घात) करने वाले हैं, नरक के द्वार हैं। अत: इन तीनों का त्याग करना चाहिए । स्पष्ट है कि ये चारों पापकर्मबन्ध के कारण हैं। स्थानांगसूत्र में प्राणातिपातादि पंच और चार कषाय, ये नौ पापकर्म के आयतन (स्थान) बताए हैं। ' विभिन्न प्रकार के अप्रशस्त राग और द्वेष से पापकर्म का बन्ध इसके अतिरिक्त एक व्यक्ति पांचों इन्द्रियों के मनोज्ञ ( प्रिय) विषयों के प्रति राग, आसक्ति, मोह, गृद्धि, लालसा, लिप्सा आदि करता है, अथवा अपने स्त्री, पुत्र, माता-पिता, अथवा अन्य सम्बन्धी जनों, भक्त - भक्ताओं तथा मित्रों एवं परिजनों आदि सजीव पर-पदार्थों एवं मकान, दूकान, बाग, मोटर, बंगला, स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ, वाहन, शयनासन, धन-सम्पत्ति आदि निर्जीव पर-पदार्थों के प्रति अत्यधिक आसक्ति, तीव्र लालसा, तृष्णा, मोह-ममता रखता है। इष्ट पदार्थों के संयोग के लिए अहर्निश चिन्तन, आर्त्तध्यान करता रहता है। इसी प्रकार अनिष्ट पदार्थों, अमनोज्ञ इन्द्रिय-विषयों, अवांछित काम भोग-साधनों, अथवा अप्रिय स्वजन - परिजनों या सजीव एवं निर्जीव पदार्थों के प्रति द्वेष, घृणा, तिरस्कार, द्रोह एवं वैर-विरोध रखता है तो आगमकथनानुसार पापकर्म का निश्चित बन्ध करता है। व्यक्ति के अपने अनुभव की आँखों से भी देखने पर पापकर्म का बन्ध प्रतीत होगा। इन्हीं अप्रशस्त राग, द्वेष और मोह के कारण सम्प्रदाय-सम्प्रदाय में, एक जाति का दूसरी जाति से, एक पंथ या मार्ग वाले का दूसरे पंथ या मार्ग वाले से, एक पक्ष, संस्कृति, प्रान्त, राष्ट्र आदि का दूसरे १. (क) नवविहा पावस्सा ऽऽययणा पण्णत्ता तं जहा- पांणाइवाए जाय परिग्गहे, लोभे । (ख) बहूण पाणाणं भूयाण जीवाणं सत्ताणं दुक्खणयाएं परियावणयाए । (ग) पदुक्खणयाए परसोयणयाए, परजूरणयाए पर- तिप्पणयाए । (घ) हिंसे बाले मुसावाई अद्धाण पि विलोवए । अनदत्तहरे तेणे, माई के नु हरे सढे ॥ (ङ) चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स । (च) माया तिर्यग्योनस्य । (छ) माई पमाई - पुणरेइ गब्धं । (ज) कोहो पीई पणासेइ, माणो विणय - णासणी । माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सव्व - विणासणो । (ञ) त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः । कामः क्रोधस्तथालोभस्तस्मादेतत्-त्रयं त्यजेत् ॥ कोहे माणे माया - स्थानांग स्था. ९ - भगवतीसूत्र ७ / ६ / १० - भगवती ७/६/१० - उत्तराध्ययन सूत्र ७ / ५ - दशवैकालिक सूत्र अ. ८, गा. ४० - आचारांगसूत्र श्रु. १, अ. ३, उ.२ - दशवैकालिकसूत्र ८/३८ - गीता १६ / २१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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