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________________ ४०६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) भरकर गाँव से जाने की उत्तेजना पैदा की। जब गाँव से जाने लगा तो उसने दर्जी में अहंकार का उफान और गाँव में लौटने की उत्तेजना भर दी। परन्तु यह सब हैमोहनीयरूप प्रबल घाति कर्म की चाल ! इसने विश्व के बड़े-बड़े मान्धाताओं को धूल चटा दी, और उन्हें भिखारी बना दिया, कई तीसमारखां लोगों को परस्पर लड़ाकर नरक का मेहमान बना दिया। इसीलिए मोहनीयकर्म को घातिकर्मों का मुखिया ही नहीं, अन्य समस्त कर्मसेना का सेनापति बताया गया है। 9 इस प्रकार मोहनीय कर्म ही नहीं, शेष तीन कर्म भी आत्मा की स्वभाव दशा को विकृत करते हैं। इतना अवश्य है कि मोहनीयरूपी कर्मबीज ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायरूप घातिकर्मों का हवा, पानी पाकर कर्मपरम्परा को सतत बनाये रखता है। अतः मोहनीय ही जन्ममरणरूप संसार या बन्धन का मूल है, शेष घातिकर्मतो उसके सहयोगी हैं। घातिकर्मों के समूल नष्ट होने पर ही केवलज्ञान - दर्शन एवं जीवन्मुक्त वीतरांग जिस प्रकार सेनापति के पराजित - पलायित होते ही सारी सेना हतप्रभ होकर पराजित व पलायित हो जाती है, वैसे ही मोहनीयकर्म को पराजित कर देने पर शेष तीनों घातिकर्मों को आसानी से पराजित किया जा सकता है और आत्मस्वरूप को, शुद्ध आत्मगुणों को उपलब्ध किया सकता है। मोह का क्षय होते ही, शेष तीनों : घातिकर्मों का क्षय होने से केवलज्ञान केवलदर्शन प्रगट हो जाता है। व्यक्ति वीतरागी, केवलज्ञानी और जीवन्मुक्त बन जाता है । २ अतः चारों घातिकर्म आत्मा की अनन्त ज्ञानादि शक्तियों के घातक, आवरक, विकारक और प्रतिरोधक हैं। जब तक चारों घातिकर्म नष्ट नहीं हो जाते, तब तक मोक्ष तो दूर रहा, केवलज्ञान - केवलदर्शन एवं वीतरागत्व या जीवन्मुक्तत्व भी प्राप्त नहीं हो सकता। इन चारों के समूल नष्ट होने पर ही आत्मा अपने मूलगुणों को पूर्णरूप से प्रकट कर सकता है और स्व-रूप में सतत स्थिर रह सकता है। चार घातिकर्मों की उत्तर - प्रकृतियाँ घातिकर्मों की पूर्वोक्त चार मूलप्रकृतियों की उत्तर- प्रकृतियाँ इस प्रकार हैंज्ञानावरण की पांच उत्तर प्रकृतियाँ - मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनःपर्यायज्ञानावरणीय और केवल - ज्ञानावरणीय | दर्शनावरणीय की नौ उत्तर - प्रकृतियाँ - निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानर्द्धि, चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवलदर्शनावरणीय। १. रे कर्म तेरी गति न्यारी से, पृ. ३५ से ३९ तक २. जैनकर्म सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन डॉ. सागरमल जैन पृ. ७७ ३. कर्मविज्ञान खण्ड ३ ( आचार्य देवेन्द्रमुनि) से, पृ. ५७५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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