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उत्तरप्रकृति-बन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-५ ३९३ चुगली करके बना-बनाया खेल बिगाड़ देता है। पूज्यपाद आचार्य के अनुसार-दानादि परिणाम में व्याघात का कारण होने से इस कर्म को अन्तराय कर्म कहते हैं।'
अन्तराय कर्म की उपमा : राजभण्डारी से अन्तरायकर्म की तुलना-उपमा राजा के भंडारी से की गई है। राजा का भण्डारी राजा के द्वारा आदेश मिलने पर भी दान आदि देने में आनाकानी करता है, विघ्न डालता है। यह कर्म जीव के गुणों में बाधा डालता है।
अन्तराय कर्म का द्विविध प्रभाव अन्तराय कर्म अपना प्रभाव दो प्रकार से दिखाता है-(१) प्रत्युत्पन्न-विनाशी और (२) पिहितागामी-पथ। प्रत्युत्पन्न-विनाशी अन्तरायकर्म के उदय से प्राप्त वस्तुओं का भी विनाश हो जाता है, अथवा हाथ में आई हुई बाजी बिगड़ जाती है, अथवा स्व-हस्तगत वस्तु भी गायब हो जाती है। और पिहितागामिपथ अन्तराय भविष्य में प्राप्त होने वाली वस्तु की प्राप्ति में अवरोधक है।
- आत्मा की पंचविध शक्तियों में अवरोधक, अन्तरायकर्म यद्यपि आत्मा में संसार की सभी वस्तुओं का दान देने की, त्याग करने की शक्ति है, सभी कुछ प्राप्त करने की क्षमता है, सभी के भोग-उपभोग करने की सामर्थ्य है; तप, जप, ध्यान, मौन, चारित्रपालन, क्षमादि धर्माचरण करने की ताकत है, लेकिन अन्तराय कर्म वैसा करने में विघ्न बाधा उपस्थित करता है। इसीलिए आत्मा की इन देने, लेने, भोगोपभोग करने या धर्मादि का आचरण करने की शक्तियों में अवरोधक बनने के कारण अन्तराय कर्म के मुख्यतया पांच भेद हैं-(१) दानान्तराय, (२) लाभान्तराय, (३) भोगान्तराय, (४) उपभोगान्तराय और (५) वीर्यान्तराय कम।
दान के प्रकार और दानान्तरायकर्म का स्वरूप -- (१) दानान्तराय कर्म-जिस कर्म के उदय से दान की सामग्री, पात्र, दानफल का ज्ञान तथा विधि का ज्ञान है, दान देने की आकांक्षा भी है, इत्यादि सब कुछ होने पर भी दान देने का उत्साह नहीं होता, अथवा किसी अपरिहार्य या आकस्मिक कारणवश
१. (क) अंतराइए कम्मे दुविहे प. त.-पडुप्पन्न-विणासिए, पिहित-आगामिपहे। -स्थानांग २/१०५
(ख) प्रथम कर्मग्रन्थ ५२ (ग) कम्मपयडी १/२ (घ) तत्त्वार्थसूत्र ८/१४ (ङ) दाणे लाभे य भोगे य, उवभोगे वीरिए तहा । पंचविहमंतराय, समासेण वियाहियं ॥
-उत्तराध्ययन. ३३/१५ • (च) कर्मप्रकृति से पृ. १२६
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