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________________ ३९२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) के करने से निन्दनीय हो जाता है। अधिकतर आलसी बन कर सोने से, सत्कार्यों में पुरुषार्थ न करने से बलहीन हो जाता है। मैले-कुचैले वस्त्र पहनने से व्यक्ति रूपहीन मालूम होता है। कुशील और दुःशील, व्यभिचारी, कुलटा स्त्रियों आदि की संगति से . तपोहीनता प्राप्त होती है। विकथा करने से, कुसाधुओं, दुर्व्यसनियों अथवा नीच विचारधारा वाले व्यक्तियों के संसर्ग से श्रुत (ज्ञान) में न्यूनता होती है। देशकाल के अयोग्य वस्तुओं के अपनाने, खरीदने आदि से लाभ का अभाव महसूस होता है। कुगृह, कुभार्या, कुलटा, कुमार्गगामी आदि के संसर्ग से व्यक्ति ऐश्वर्यरहित होता है। गलत और पथ्यप्रतिकूल आहार करने से, मद्यादि का पान करने से जीव रूपहीनता का अनुभव करता है। स्वाभाविक पुद्गल परिणामों से भी जीव नीचगोत्र का अनुभव करता है वह प्रभावहीन हो जाता है। जैसे-बादलों के बारे में कही हुई बात का सत्य . न निकालना आदि। निष्कर्ष यह है कि जाति आदि ८ प्रकार के मद, गर्व, अहंकार या अभिमान के मनुष्य जितना निकट जाता है, उतना ही वह आत्मभावों से दूर चला जाता है, मदादि से जितना दूर रहता है, उतना ही वह सत्यादि आत्मगुणों के निकट जाने का प्रयास करता है। अतः अहंकार (अभिमान) से दूर रहने की प्रेरणा देना ही गोत्रकर्म की बन्धकारण-सामग्री का प्रधान उद्देश्य है। अन्तराय कर्म की उत्तर-प्रकृतियाँ : स्वरूप, कार्य और बन्धकारण कर्म की आठ मूल प्रकृतियों में अन्तराय कर्म आठवाँ है। अन्तराय शब्द का अर्थ है-विघ्न, बाधा, रुकावट, अड़चन, कुण्ठा, रोड़ा अटकानां आदि। आत्मा की अनन्त शक्तियों को कुण्ठित करने वाला अन्तराय कर्म है। अन्तराय कर्म का कार्य है-जीव को लाभ आदि की प्राप्ति में, तथा शुभकार्यों को करने की क्षमता में, तप-शील आदि की साधना करने के सामर्थ्य में अवरोध खड़ा कर देना। जीव जब शुभाशुभ संकल्प-विकल्पों द्वारा जिन कर्मयोग्य परमाणुओं को आकर्षित करके आत्मप्रदेशों से आवद्ध करता है, तब उनमें ज्ञानादि आत्मगुणों को आवृत करने की क्षमता प्राप्त होने के साथ-साथ ऐसा सामर्थ्य भी उत्पन्न होता है, जो आत्मा की वीर्यशक्ति के प्रकट होने में रुकावट डालते हैं। फलतः वे दान, लाभ, भोग, उपभोग आदि कार्यों में सफलता या कार्यसिद्धि का मुख नहीं देखने देते। इस विघ्न-बाधा उपस्थित करने वाले कर्म का नाम है-अन्तराय। यह अन्तराय कर्म बनते हुए कार्य को वैसे ही बिगाड़ देता है, जीव की आशाओं पर वैसे ही तुषारपात कर देता है, जिस प्रकार चुगलखोर या विरोधी १. ज्ञान का अमृत से पृ. ३५९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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