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________________ (४०) जैन धर्मानुसार कर्म बंध आम्रव से होता है और इसका फल भोगना अनिवार्य है। संवर से नए कर्म का आगमन नहीं होता है और निर्जरा से पूर्व संचित कर्म नष्ट होकर व्यक्ति आत्म-सिद्ध बनता है। काय वाङ्मनः आनव ( तत्वार्थ सूत्र ) । पुनः पुण्य पापागम द्वार लक्षण आस्रव । आस्रव द्वार पांच हैं - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । शुभ योग पुण्य और अशुभ योग पाप का आनव है। श्री लोकाशाह चरितम् ( ४.३५ ) में कहा गया है छिद्रान्विते यथा वारिघटे विशति तत्स्थितेः । जीवे मिथ्यादृगादिभ्यो विशति कर्म पुदगलाः ॥ संवर की परिभाषा है " आम्रव निरोधः संवरः । " अन्यत्र इसे यों कहा गया है। “कर्मागमनिमित्ता प्रादुर्भूतिराश्रव निरोध । भगवती आराधना के अनुसार निर्जरा से तात्पर्य है - " पुव्व कदकम्म स हणं तु निर्जरा। अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है “निर्जरणं निर्जरा, विशरण परिशटनमित्यर्थः अर्थात् आत्म प्रदेश पर कर्मों का निर्जरणा समाप्त होना निर्जरा है। वह अष्ट कर्मों को दूर करती है - निर्जरा के भी द्वादश भेद स्थानांग सूत्र ( ठाणा - १ ) में बताए गए हैं। आचार्यों ने तप और निर्जरा का संबंध बताते हुए कहा है कि तप कारण है, निर्जरा कार्य है। निर्जरा के यों दो भेद सकाम निर्जरा व अकाम निर्जरा बताए गए हैं। आत्मा को क्लेश, कषाय और कर्म से मुक्त करने के ये सोपान हैं। जैन धर्म ने मनोवैज्ञानिक पद्धति से मनुष्य को कर्ममुक्त करके निर्वाण की ओर अग्रसर किया है। भगवान महावीर ने कर्म को ही मनुष्य के उच्च व नीच होने का आधार गिना । जन्मना सब मनुष्य समान हैं - केवल कर्म से ही वे उच्च और नीच होते हैं - यह एक जड़ परम्परा और मान्यता के विरुद्ध सशक्त और सफल क्रांति थी। उनका उद्घोष था कि कर्म से ही ब्राह्मण होता है, जन्म से नहीं (कम्मुणा बम्भणो होई) जिस मूल सिद्धान्त पर जैन कर्मवाद विवेचित है, वही प्रायः किसी न किसी रूप में सर्वत्र मान्य रहा है। कर्मों का फल अनिवार्य है। जन्म जन्मांतर तक संस्कारों का प्रवाह निरन्तर चलता है। कर्मफल प्राप्त होगा ही । चाणक्य नीति कहती है, कर्मायतं फलं पुंसा बुद्धि कर्मानुसारिणी ( १३.१० ) । यह भी स्वयं सिद्ध सत्य है कि प्रत्येक प्राणी को अपने कर्मों के बंधन से मुक्त होना है - वह उसका पुरुषार्थ है। अन्य कोई उसे जीवन के परम लक्ष्य तक नहीं ले जा सकता “ अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य" अन्यत्र भी यही कहा गया है। "स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभम्।" जैन कर्म विज्ञान की एक और विशेषता कर्मों का वर्गीकरण है (उत्तरा. अ. ३३) व स्थानांग सूत्र के अनुसार कर्म की आठ मूल प्रकृतियां हैं, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय (८.३.५७६) देवेन्द्र सूरि ने कर्म विपाक में इन्हीं की विवेचना की है। इन्हीं से कर्म बंध होता है जिन्हें भोगना ही पड़ता है जं जं समयं जीवो आविसइ जेण जेण भावेण । सो तंमि तंमि समए सुहासुहं बंधए कम्मं ॥ ( उपदेशमाला २४). Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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