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________________ उत्तरप्रकृति-बन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण - ५ ३८९ द्वेषवश उन्हें न कहना। (४) असद्गुणोद्भावन - अपने में गुण न होने पर भी उनका प्रदर्शन करचा, अपनी झूठी बढ़ाई हांकना । ' भगवान महावीर ने मरीचि के भव में कुलमद किया, जिससे उनके नीचगोत्रकर्म का बन्ध हो गया। जिसका फल उन्हें अन्तिम भव में, प्राणत देवलोक से च्यवकर देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में अवतरित होने के रूप में मिला। भिक्षुक कुल में आना ही नीचगोत्रकर्म का फल था। उच्चगोत्रकर्म आत्मा की प्रवृत्ति को ऊर्ध्वमुखी बनाता है; जबकि नीचगोत्रकर्म अपनी मायावी प्रकृति के कारण परलोक में नीचगोत्र का भोग कराता है। उच्चगोत्रकर्म का फलभोग : आठ प्रकार से गोत्रकर्म के प्रथम भेद उच्चगोत्रकर्म का फलभोग आठ प्रकार से होता है - ( 9 ) जाति की विशिष्टता - जाति का अभिमान (मद) न करने के फलस्वरूप जीव को श्रेष्ठ, उच्च और लोकप्रिय जाति की प्राप्ति होती है। ऐसी जननी प्राप्त होती है, जिसकी वंश परम्परा आचार-विचार और संस्कार की दृष्टि से प्रामाणिक और आदरास्पद होती है। (२) कुल की विशिष्टता - कुल का मद (अहंकार) न करने से सम्मानित और प्रतिष्ठित कुल की प्राप्ति होती है। ऐसे पिता की प्राप्ति होती है, जिसकी वंशपरम्परा आचार-विचार और संस्कार की दृष्टि से आध्यात्मिक और श्रेष्ठ होती है। ऐसे व्यक्ति को कलंकित, निन्द्य और घृणित कुल की प्राप्ति नहीं होती । (३) बल की विशिष्टताबल का मद न करने से शरीर बलिष्ठ और स्वस्थ मिलता है। शरीर में दुर्बलता या शक्तिहीनता लेशमात्र भी नहीं होती। (४) रूप की विशिष्टता-रूप का अभिमान (गर्व ) न करने से उत्तम रूप-सौन्दर्य की प्राप्ति होती है। सुखविपाक सूत्रोक्त सुबाहुकुमार के समान सुन्दर रूप-सौन्दर्य प्राप्त होता है। कुरूपता या आकृतिगत अशोभनता उसके पास भी नहीं फटकती । (५) तप की विशिष्टता - तप का मद न करने से व्यक्ति को बाह्य आभ्यन्तर तप करने का सुन्दर अवसर प्राप्त होता है। शरीर और मन इतना क्षमतापूर्ण होता है कि निरभिमानतापूर्वक आसानी से वह उग्र तपस्या कर लेता है। (६) ज्ञान की विशिष्टता - ज्ञान का अहंकार (गर्व - मद) न करने से उस जीव को आध्यात्मिकं ज्ञान - श्रुतज्ञान की सम्पदा प्रचुरमात्रा में प्राप्त होती है। वह थोड़े ही १. (क) जातिमदेण कुलमदेणं बलमदेणं जाव इस्सरियमदेणं णीयागोयाकम्मसरीरं जाव पयोग बंधे । जाति अमदेणं, कुल अमदेणं, बल अमदेणं, रूव अमदेणं, तव अमदेणं, सुय अमदेणं, लाभ - अमदेणं, इस्सरिय-अमदेणं उच्चागोयाकम्मासरीरं जाव पयोगबंधे । (ख) परात्म-निन्दा - प्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रम् । तद् विपर्ययो नीचैर्वृत्यनुत्सेको चोत्तरस्य । (ग) गोयं दुहुच्चनीयं कुलाल इव सुघऽभुंभलाईय (घ) ज्ञान का अमृत से, पृ. ३५६ Jain Education International - भगवतीसूत्र श. ८ सू. ३५१ For Personal & Private Use Only - तत्त्वार्थसूत्र ६/२४-२५ www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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