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३८८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) ___ गोत्रकर्म बन्ध के १६ कारणों से बांधा जाता है, जिनमें से ८ कारण हैं, उच्चगोत्रकर्मबन्ध के और आठ कारण हैं नीच गोत्रकर्मबन्ध के। जीव आठ कारणों से उच्चगोत्रकर्म बांधता है-(१) जातिमद न करने से, (२) कुलमद न करने से, (३) बलमद न करने से, (४) रूपमद न करने से, (५) तपोमद न करने से, (६) लाभमद न करने से, (७) श्रुतमद-शास्त्रज्ञान का मद न करने से और (८) ऐश्वर्यमद न करने से। इसके विपरीत ही ८ कारणों से जीव नीचगोत्रकर्म बांध लेता है-जाति, कुल, बल, रूप, तप, लाभ, श्रुत और ऐश्वर्य का मद (गर्व घमण्ड या अहंकार) करने से।'
कर्मग्रन्थ में उच्चगोत्र कर्म-बन्ध के चार कारण इस प्रकार बताये गए हैं-(१) किसी व्यक्ति में दोषों के रहते हुए भी उस विषय में उदासीन रहना, केवल उसके गुणों को ही देखना, (२) जातिमद आदि आठ प्रकार का मद न करना, निरभिमानी रहना, (३) सदैव पठन-पाठन, अध्ययन-अध्यापन में रत रहना, तथा (४) जिनेन्द्र भगवान् (अरिहन्त), सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, माता-पिता तथा गुणिजनों की भक्ति करना, उनके गुणों की अनुमोदना करना। इसके विपरीत चार कारण नीचगोत्रकर्म-बन्ध के समझने चाहिए। जैसे-(१) दूसरे के गुणों को न देखकर दोषों का ही उद्भावन करना, (२) जातिमद आदि आठ मद करना, गर्व में चूर रहना। (३) पांचों इन्द्रियों के विषयों में, प्रमाद में व्यग्र रहना, (४) अरिहन्त आदि के अवगुणयाद बोलना निन्दा करना।२ ___तत्त्वार्थसूत्र में उच्चगोत्र कर्म बन्ध के ६ कारण बताए हैं-(१) आत्मनिन्दा-अपने में अवस्थित दोषों को देखना, (२) परप्रशंसा-दूसरे के गुणों को देखना, गुणानुवाद करना, (३) असद्गुणोद्भावन-अपने दुर्गुणों को प्रकट करना, (४) स्वगुणाच्छादनअपने में विद्यमान गुणों को छिपाना, (५) नम्रवृत्ति-पूज्य व्यक्तियों के प्रति नम्रवृत्ति धारण करना, (६) अनुत्सेक-ज्ञानसम्पदा आदि में दूसरे से अधिक होने पर भी उसके कारण गर्व धारण न करना। ___ इसके विपरीत नीचगोत्रकर्मबन्ध के तत्त्वार्थसूत्र में ४ कारण बताए हैं-(१) परनिन्दा-दूसरों की निन्दा करना। निन्दा का अर्थ है दूसरे के सच्चे या झूठे दोषों को दुर्बुद्धिपूर्वक प्रकट करने की वृत्ति, (२) आत्मप्रशंसा-अपनी बड़ाई करना, अपने सच्चे या झूठे गुणों को प्रगट करने की वृत्ति का नाम आत्मप्रशंसा है, (३) सद्गुणाच्छादनदूसरे में यदि गुण हैं तो भी उन्हें छिपाना और उनके कहने का प्रसंग आने पर भी
१. (क) ज्ञान का अमृत से, पृ. ३५७
(ख) कर्मप्रकृति से, पृ. १२३-१२४ २. गुणपेही मयरहिओ अज्झयणऽज्झणारुई निच्च।
पकुणइ जिणाइभत्तो, उच्च, नीयं इयरहा उ ॥ ६० ॥
-कर्म. भा.
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