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________________ उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-४ ३४५ श्रावक के व्रत में स्थूल रूप से हिंसा, झूठ, चोरी आदि का प्रत्याख्यान होता है, सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों की आरम्भजा हिंसा सर्वथा छूटती नहीं है, इसी प्रकार सूक्ष्म असत्य, स्तेय आदि भी रहते हैं। इस कारण संयमासंयम को भी देवायु कर्मबन्ध का कारण माना है। बालतप का अर्थ है-अज्ञानयुक्त तप, सम्यग्ज्ञान से रहित तप। जिस तपश्चरण या कायाकष्ट में आत्मशुद्धि का-सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान या सिद्धान्त का लक्ष्य न होकर अन्य कोई भौतिक या लौकिक लक्ष्य हो। इसी प्रकार अकामनिर्जरा का अर्थ है-अनिच्छा से, दबाव से, भय से, पराधीनता से या लोभ आदि वश कष्ट सहन करना, मजबूरी से भूख आदि सहना, कामेच्छा को सामाजिक भय से मारना आदि अकामनिर्जरा है। यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि सराग-संयम और संयमासंयम में तो सम्यक्त्व निश्चित और गर्भित है ही, क्योंकि बिना सम्यक्त्व के ये हो ही नहीं सकते। किन्तु अकामनिर्जरा और बालतप में ऐसा नियम नहीं है। सम्यक्त्व के साथ रागभाव साम्प्रदायिक या पान्थिक राग हो, निश्चय सम्यक्त्व रहित केवल व्यवहार-सम्यक्त्व हो, वह भी देवायु का कारण बनता है। जैसे-धूनी रमाना, वृक्षों के साथ स्वयं को उलटा बांध देना, ठंडे पानी में खड़े रहना, महीनों तक तलघर या गुफा में बन्द होकर पड़े रहना, काशी में करवत से स्वयं को चिरवाना, पंचाग्नि तप तपना आदि अज्ञानपूर्वक किये गये तप बालतप हैं।२ . देवायु का बन्ध करने वाले जीव बालतप या अज्ञानतप, सम्यग्ज्ञान के अभाव में होता है, इससे भी कई जीव देवायु का बन्ध करते हैं। औपपातिक सूत्र में ऐसे कई बालतपस्वियों के वर्णन हैं। तामली तापस, कमठ, अग्निशर्मा आदि भी बालतपस्या के फलस्वरूप देवयोनिदेवगति में गए। नारकीय जीव भयंकर कष्ट सहते हैं, उन्हें अनिच्छा से कष्ट सहना पड़ता है, सम्यग्ज्ञान न होने से वे कष्ट के समय समभाव एवं आत्मचिन्तन नहीं कर पाते, स्वभावरमण भी नहीं कर पाते, इस अकाम निर्जरा के कारण उनके कर्म तो कटते हैं, किन्तु साथ ही दुर्ध्यान होने के कारण वे देवायु का बन्ध नहीं कर पाते। धवल बैल अपने मालिक की बैलगाड़ी खींच रहा था। रास्ते में ५00 गाड़ियाँ फंस गई। बैल के मालिक ने धवल को बहुत उकसाया। बेचारे ने भरसक जोर लगाया। उसने मालिक के प्रति वफादारी बताते हुए ५०० गाड़ियाँ खींचकर बाहर निकाल दीं। मगर उसके पैर के संधिस्थान टूट गए, वह निढाल होकर गिर पड़ा। मालिक को आगे जाना था। उसने गाँव के लोगों को बैल की चिकित्सा और शुश्रूषा के लिए बहुत-सा १. (क) सराग-संयम-संयमासंयमाऽकामनिर्जरा-बालतपांसि देवस्य । -तत्त्वार्थसूत्र ६/२० (ख) तत्त्वार्थसूत्र, विवेचन ६/२० (उपाध्याय केवलमुनि) से, पृ. २८३ (ग) चउहिं ठाणेहिं जीवा देवाउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा-सरागसंजमेणं संजमासंजमेणं बालतवो-कम्मेणं अकामणिज्नराए। -स्थानांग स्थान ४, उ. ४, सू. २७३ २. ज्ञान का अमृत से, पृ. ३१२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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