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३४४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
मनुष्यायु कर्म के बन्ध के चार कारण - स्थानांगसूत्र में इस प्रकार बताये गए हैंचार कारणों से जीव मनुष्यायुकर्म का बन्ध करते हैं। यथा - ( १ ) उत्तम भद्र प्रकृति (स्वभाव) होने से, (२) स्वभाव में विनयभाव होने से, (३) दयालु स्वभाव होने से, तथा (४) स्वभाव में मात्सर्य ( ईर्ष्याभाव या डाह ) न होने से। मूल आगम में 'प्रकृतिभद्रता और प्रकृतिविनीतता' इन दोनों कारणों का तात्पर्य यह बताया गया है कि सरलता और विनीतता स्वाभाविक हो, हृदय की सहजवृत्ति में हो, दिखावटी - बनावटी न हो। ईष्यालु न होकर गुणानुरागी होना तथा दयालु होना भी सरलता एवं विनीतता में समाविष्ट हो जाता है। यही कारण है कि तत्त्वार्थसूत्र में मनुष्यायुकर्म बन्ध के बताए हुए चार कारणों में से स्वभाव की मृदुता और स्वभाव की ऋजुता ( सरलता) इन दो के अतिरिक्त इन्हीं के परिपोषक अन्य दो गुणों का उल्लेख किया है - अल्पारम्भ और अल्पपरिग्रह। इनका तात्पर्य है - आरम्भ वृत्ति और परिग्रह वृत्ति को कम करना। यहाँ 'अल्प' शब्द वस्तु की अल्पता का द्योतक न होकर वृत्ति में आरम्भ और परिग्रह की - ममत्व की, आसक्ति की अल्पता का द्योतक है। यद्यपि सामाजिक स्थिति-मर्यादा के अनुसार व्यक्ति को मानव जीवन की सार्थकता और भविष्य में प्राप्ति के अनुसार आरम्भ और परिग्रह की भी अल्पता - मर्यादा करना आवश्यक है, किन्तु उसमें भी मानसिक वृत्तियों में विषयासक्ति एवं कषाय की मन्दता: की दृष्टि से आरम्भ के प्रति आसक्ति और ममता की अल्पता आनी चाहिए । आरम्भजन्य तीव्रता (हिंसा में क्रूरता) में भावात्मक अल्पता, आसक्ति एवं कषाय की अल्पता होनी आवश्यक है। यही कारण है कि एक आचार्य ने आरम्भ और परिग्रह में मन्दता - अल्पता के लिए क्रमशः दयालुता (अनुकम्पा वृत्ति) और दान देने की रुचि - परोपकारवृत्ति को, अल्पकषाय को तथा विनय, सरलता, मृदुता, देव-गुरु-भक्ति तथा अतिथि सत्कार को भी मनुष्यायुकर्म बन्ध के फलस्वरूप मानव जीवन की प्राप्ति के कारण बताए हैं। कठोरता, क्रूरता, अभिमानी - अहंकारी वृत्ति मनुष्यायुकर्मबन्ध के कारण नहीं हैं। 9
देवायुकर्मबन्ध के कारण-स्थानांगसूत्र में देवायुष्यकर्मबन्ध के ४ कारण बताए हैंचार कारणों से जीव देवायुकर्म का बन्ध करते हैं - सराग - संयम से, संयमासंयम से, बालतपःकर्म से और अकाम-निर्जरा से। ये ही चार कारण तत्त्वार्थसूत्र में बताए हैं। सरागसंयम का अर्थ है-संयम (हिंसादि सर्वपापों से विरतिरूप चारित्र ) ग्रहण कर लेने पर भी राग या कषाय का अंश शेष रहता है, तब तक वह संयम शुद्ध संयम नहीं है, सराग संयम है, क्योंकि शुद्ध संयम से तो कर्मबन्ध न होकर कर्मक्षय होता है, किन्तु रागयुक्त संयम होने के कारण उससे देवायुकर्म का बन्ध होता है। इसी प्रकार संयमासंयम (देशविरति चारित्र ) का अर्थ है - कुछ संयम, कुछ असंयम । जैसे गृहस्थ
१. (क) तत्त्वार्थसूत्र ६ / १८ विवेचन ( उपाध्याय - केवलमुनि) से, पृ. २८१ (ख) रे कर्म ! तेरी गति न्यारी से भावांशग्रहण, पृ. १४६
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