SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 378
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) मोहनीय कर्मबन्ध के कारण यद्यपि मोहनीय कर्म के बन्ध-हेतुओं का अंगुलिनिर्देश हमने 'मूल कर्मप्रकृतियों के स्वभाव, स्वरूप एवं कारण' शीर्षक लेख में किया है। इसलिए यहाँ उसका पिष्ट-पेषण नहीं करना चाहते। यहाँ तो मोहनीय कर्म की उत्तर-प्रकृतियों की अपेक्षा से दशन-महिनीय तथा चारित्र-मोहनीय कर्म के जो पृथक्-पृथक् बन्धहेतु बताए गए हैं, उनकी चर्चा करना अभीष्ट है। स्थानांग सूत्र में दुर्लभबोधिकर्म का उपार्जन करने के जो पांच कारण बताये गए हैं, वे ही वास्तव में दर्शन-मोहनीय (दुर्लभबोधि) कर्म के बन्ध के कारण हैं। वहाँ कहा गया है-पांच स्थानों (कारणों) से जीव दुर्लभबोधि (दर्शनमोहनीय) कर्म का उपार्जन (बन्ध) करता है। जैसे कि-(१) अर्हन्त का अवर्णवाद करने से, (२) अर्हन्त-प्रज्ञप्त धर्म का अवर्णवाद (निन्दा) करने से, (३) आचार्य-उपाध्याय का अवर्णवाद करने से, (४) चतुर्विध (धर्म) (श्रमण-श्रमणीश्रावक-श्राविकारूप) संघ का अवर्णवाद करने से तथा (५) परिपक्व तप और ब्रह्मचर्य के धारक, जो जीव देव हुए हैं, उनका अवर्णवाद (उनमें जो दोष नहीं हैं, वे दोष बताकर निन्दा) करने से। इसी तथ्य का समर्थन करते हुए तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है-(१) केवली (केवलज्ञानी अर्हत्-सर्वज्ञ), (२) श्रुत (सर्वज्ञकथित शास्त्र) (३) संघ (चतुर्विध धर्मसंघ), (४) धर्म (अहिंसा-सत्यादिमय) और (५) देव (पूर्वोक्त देव अथवा धर्मदेवआचार्य-उपाध्याय-साधु) का अवर्णवाद बोलना दर्शनमोहनीय के आस्रव (उत्तरक्षण में बन्ध) के कारण हैं। इन पांचों का अवर्णवाद कैसे-कैसे होता है? यह विचारणीय है। (१) कवली (अवर्णवाद)-पूर्णज्ञानी सर्वज्ञ वीतराग आप्त आत्माओं के प्रति भ्रामक प्रचार करना। यथा-कोई सर्वज्ञ हो ही नहीं सकता, इत्यादि। (२) श्रुत-केवली (सर्वज्ञ) भगवान् द्वारा कथित अंग आदि श्रुत, गणिपिटक आदि की निन्दा करना। यह सब भगवान् की वाणी नहीं है। उनकी निन्दा-आलोचना करना। (३) संघ-चतुर्विध संघ पर व्यर्थ के आक्षेप, दोषारोपण, निन्दा आदि करना. (४) धर्म-अहिंसादिमय धर्म को कायरों का धर्म बताना। सद्धर्म की निन्दा करना। (५) देव-देवों की निन्दा-आशातना करना, सच्चे देवों को मांस-मदिरा सेवी बताना आदि। निन्दा या अवर्णवाद अपने आप में द्वेषभाव, ईर्ष्या, तेजोद्वेष आदि से प्रायः प्रेरित होता है, इसलिए झूठ का पिटारा है। निन्दा को सूत्रकृतांग सूत्र में 'खिंखिणी' बता कर उसका सख्त निषेध किया है, साधक एवं आत्मार्थी जनों के लिए। निन्दक व्यक्ति दोषदर्शी होता है, वह आत्मा को कलुषित बनाकर दर्शनमोहनीय कर्म बांध लेता है, जिससे भविष्य में उसे सत्य-सम्यकबोधि की प्राप्ति नहीं होती। उत्तराध्ययन में कहा गया है'बोही होई सुदुल्लहा तेसिं'-ऐसे व्यक्तियों को बोधिप्राप्ति बहुत ही दुर्लभ होती है। १. (क) पंचहिं ठाणेहिं जीवा दुल्लभ-बोहियत्ताए कम्म पकरेंति, त.-अरिहंताणं अवन वदमाणे, अरहंत-पन्नत्तस्स धम्मरस अवन्न वदमाणे, आयरिय-उवज्झायाणं अवन्न वदमाणे, चउवण्णस्स संघस्स अवण्णं वदमाणे, विवक्क-तव-बंभचेराणं देवाणं वदमाणे। -स्थानांग ५/२/४५६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy