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________________ उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-३ ३२९ (४) शोक-सकारण या अकारण ही जिस कर्म के उदय से शोक, चिन्ता, तनाव तथा इष्टवियोग-अनिष्टसंयोग के कारण होने वाला मानसिक क्लेश हो, उसे शोक मोहनीय कर्म कहते हैं। (५) भय-जिस कर्म के उदय से कारणवश या बिना कारण ही सात भयों में से किसी प्रकार भय, डर, उद्वेग उत्पन्न हो, उसे भयमोहनीय कर्म कहते हैं। भय सात कारणों से होता है-(१) इहलोकभय (अपनी जाति के प्राणी से भय), (२) परलोकभय (अन्य जाति के प्राणी से भय), (३) आदान (अत्राण) भय (धनादि की रक्षा के लिए चोर, डाकू, आदि से डरना), (४) अकस्मात् भय (एक्सीडेंट आदि होने से या बिना कारण के डरना), (५) आजीविका भय (अपनी जीविका चली जाने का डर, अथवा वेदनाभय-रोगादि की पीड़ा से भयभीत होना), (६) अपयशभय (अपकीर्ति, निन्दा, बदनामी से डरना), तथा (७) मरणभय (मृत्यु का डर, मरने से डरना)। (६) जुगुप्सा-जिस कर्म के उदय से सकारण या अकारण बीभत्स, अंगविकलतादि या घृणाजनक सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति ग्लानि, घृणा, नफरत, द्वेष, ईष्यादि भाव उत्पन्न हों, उसे जुगुप्सा-मोहनीय कर्म कहते हैं। ( ७, ८, ९) स्त्री-पुं.-नपुंसकवेद-जिस कर्म के उदय से स्त्री को पुरुष के साथ रमण की इच्छा हो, उसे स्त्रीवेद, पुरुष को स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा हो, उसे पुरुषवेद, तथा स्त्री-पुरुष दोनों के साथ रमण करने की इच्छा हो, उसे नपुंसकवेद कहते हैं। तीनों वेद दो-दो प्रकार के होते हैं। द्रव्यवेद और भाववेद। प्रकट बाह्य चिह्न विशेष को द्रव्यवेद तथा तदनुरूप अभिलाषा को भाववेद कहते हैं। द्रव्यवेद तो नामकर्मजन्य पौद्गलिक आकृतिविशेष है, जबकि भाववेद एक प्रकार का मनोजनित कामविकार है, जो मोहनीय कर्म के उदय का फल है। भाववेद कषायविशेष होने से परिवर्तित भी हो सकता है। चारित्रमोहनीय कर्म की कितनी प्रकृतियाँ सर्वघाती, कितनी देशघाती ? इस प्रकार चारित्रमोहनीय कर्म की १६ कषाय और ९ नोकषाय, यों कुल २५ 'प्रकृतियाँ हुईं। चारित्रमोहनीय की अनन्तानुबन्धी क्रोधादि सोलह कषायों तथा नोकषाय-मोहनीय के नौ भेदों में से संज्वलन-कषाय-चतुष्क और नौ नोकषाय के अतिरिक्त शेष बारह प्रकृतियाँ सर्वघाती हैं। संज्वलनकषायचतुष्क और नौ नोकषाय ये १३ प्रकृतियाँ देशघाती हैं।२ १. (क) तत्त्वार्थसूत्र, विवेचन (उपाध्याय केवलमुनि) से, पृ. ३७२-३७३ (ख) कर्मप्रकृति से भावांशग्रहण, पृ. ३९-४३ (ग) सत्त भयट्ठाणा पण्णत्ता तं.-इहलोक भए, परलोगभए, आदाणभए, अकम्हाभए, वेयणभए, असिलोगभए, मरणभए। -स्थानांग स्था. ७/५४९ .. (घ) समवायांग, ७ समवाय २. कर्मग्रन्थ प्रथम, विवेचन (मरुधरकेसरीजी) से, पृ. ९३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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