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________________ उत्तर- प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण - ३ ३२१ या क्रोधादि कषाय (वासना) मिथ्यादृष्टि की भव-भवान्तरों तक बनी रहती है । भोगादि का त्याग- कर देने पर भी उसकी वासना का त्याग नहीं हो पाता। इसकी निमित्तभूता कर्म-प्रकृति अनन्तानुबन्धी है। 9 अप्रत्याख्यानावरण कषाय- जिस कषाय के उदय से देशविरति - आंशिक त्यागरूप अल्प-प्रत्याख्यान भी न हो सके, उसे अप्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं। अर्थात्जिसके उदय से जीव संयम (देशविरति चारित्र) को स्वल्प मात्रा में भी करने के लिए उत्साहित नहीं होता। अर्थात् श्रावक धर्म की प्राप्ति नहीं होती, वह अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय कहलाता है। यह कषाय जीव को पापों से किंचित् भी विरत नहीं होने देता। इस कषाय की अवधि अधिक से अधिक एक वर्ष की है। यदि एक वर्ष से अधिक रह जाए तो अनन्तानुबन्धी में परिणत हो जाता है। अविरति के जाने के पश्चात् त्यागभाव आता है। त्यागभाव आने के पश्चात् यदि अंशतः त्याग किया जाए तो देशविरति गुण स्थान प्राप्त होता है। सर्वविरति साधु के त्याग की अपेक्षा देशविरति श्रावक का त्याग आंशिक होता है। अप्रत्याख्यानी वर्ग का कोई भी कषाय देशविरति गुण को रोक सकता है। इस कषाय के परिणामस्वरूप प्राणी भवान्तर में निर्यञ्चगति में भटक सकता है। २ प्रत्याख्यानावरण कषाय- प्रत्याख्यान, संयम, महाव्रत, सर्वविरति चारित्र, ये सब एकार्थक हैं। जिस कषाय के उदय से आत्मा को सर्वविरति चारित्र प्राप्त करने में बाधा हो, अर्थात् श्रमण (साधु) धर्म की प्राप्ति न हो, उसे प्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं। इस कषाय के उदय होने पर एकदेश त्यागरूप देशविरति, श्रावकाचार, श्रावकधर्म के पालन करने में तो बाधा नहीं आती, किन्तु सर्वविरति पूर्ण चारित्र रूप श्रमण धर्म या महाव्रतपालन नहीं हो सकता। इसके प्रभाव से जीव साधुव्रतों को अंगीकार नहीं कर सकता। प्रत्याख्यानावरण के चारों कषाय पूर्वोक्त दोनों कषायों के प्रमाण में कम कठोर होते हैं। फिर भी वे संसार के सन्मुख होते हैं। सर्वसंगत्याग को जैनदृष्टि से सर्वविरति कहा जाता है। सांसारिक सम्बन्धों और प्रपंचों से अलग रहने वाले साधुत्व या साधु जीवन को, साधु के सर्वविरति गुण को ये प्रत्याख्यानी कषाय रोकते हैं। सामान्यतया प्रत्याख्यानी कषाय की अधिक से अधिक अवधि ४ मास की १. कर्म सिद्धान्त ( जिनेन्द्र वर्णीजी) से साभार उद्धृत, पृ. ६६-६७ २. (क) न वेद्यते स्वल्पमपि प्रत्याख्यानं येषामुदयादतोऽप्रत्याख्यानान्तः । यदभाणि • नाल्पमप्युत्सहेद्येषां प्रत्याख्यानमिहोदयात् । अप्रत्याख्यानसंज्ञाऽत्तो द्वितीयेषु निवेशिता ॥ (ख) अप्रत्याख्यान- कषायोदयाद् विरतिर्नभवति । (ग) यदुदयाद्देशविरतिं - देश-प्रत्याख्यानकर्मावरणवन्तोऽप्रत्याख्यानावरणाः क्रोध- मान-माया-लोभाः। - सर्वार्थसिद्धि ८/९ (घ) जैनदृष्टिए कर्म से पृ. १२३ Jain Education International For Personal & Private Use Only - प्रथम कर्मग्रन्थ टीका १७ - तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ८/१० www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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