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________________ ३२० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) जैसे सोमल ब्राह्मण के जीव के साथ गजसुकुमाल के जीव का अनन्तानुबन्धी कषाय ९९ लाख भवों तक चलता रहा। प्रायः ऐसे कषाय आत्मा को नरकगति की ओर घसीट ले जाते हैं। इस सम्बन्ध में एक शंका उपस्थित होती है कि अनन्तानुबन्धी क्रोधादि कषायों का उदयकाल अन्तर्मुहूर्त कहा गया है और स्थिति कही गई है-चालीस कोटा-कोटी सागर प्रमाण; ऐसी स्थिति में ये अनन्त भवानुबन्धी या अनन्तकालस्थायी कैसे हुए? इसका समाधान यह है कि इन कषायों के संस्कार अनन्तभव तक बने रहते हैं। ये चारों अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्व के तो विरोधी हैं ही, चारित्र के भी विरोधी हैं; क्योंकि इनमें दोनों का ही घात करने की दो प्रकार की शक्ति पाई जाती है। यह बात युक्ति से भी समझी जा सकती है-युक्ति यह है कि दर्शनमोहनीय की त्रिविध प्रकृति के विद्यमान रहते, सम्यक्त्व प्रगट नहीं हो सकता, और चारित्रमोहनीय के अन्तर्गत अनन्तानुबन्धी कषायों के रहते चारित्र भी नहीं आ सकता। यद्यपि अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्टय चारित्रमोहनीय की प्रकृतियाँ हैं, किन्तु वे चारित्र के साथ सम्यक्त्व की घातक भी इसलिए मानी गई हैं कि मिथ्यात्व के बन्ध, उदय और सत्ता (सत्त्व) के साथ अनन्तानुबन्धी कषाय का अविनाभावी सम्बन्ध है। इसलिए मिथ्यात्व के साथ उदय होने वाला कषाय सम्यक्त्व का घात करता है, और सम्यक्त्व के साथ चारित्र का घात भी अनन्तानुबन्धी के द्वारा ही हो जाता है। अनन्तानुबन्धी का रहस्यार्थ जिनेन्द्रवर्णीजी ने अनन्तानुबन्धी कषाय का रहस्यार्थ इस प्रकार खोला है-“तीव्र कषाय का नाम अनन्तानुबन्धी नहीं है, बल्कि उस सूक्ष्म (तीव्रतम) वासना का नाम है, जो हजार बार समझाने पर भी नम्र नहीं होती है। इस भाव. (वासना) से शून्य सम्यग्दृष्टि में भी, कदाचित् तीव्र कषाय देखा जा सकता है, और इस भाव (वासना) से युक्त मिथ्यादृष्टि में कदाचित् मन्दकषाय पाया जाना सम्भव है। कषाय की तीव्रता-मन्दता के भाव को आगम में 'लेश्या' (भी) कहा गया है। अनन्तानुबन्धी आदि (कषायों) के चार (चार) भेद वासनाकाल को दृष्टि में रखकर किये गये हैं। बाहर में कषायरूप कार्य हो या न हो; वासना अंदर में बनी रहती है; कुछ अत्यन्त दृढ़ होती है और कुछ अल्पकाल-स्थायी। ऐसी दृढ़ वासना, जो अनन्तकाल में भी न टूट पावे, (वह) अनन्तानुबन्धी कहलाती है। यही कारण है, कि एक बार उत्पन्न हुई भोगासक्ति १. (क) अनन्तान्यनुबध्नन्ति यतोजन्मानि भूतये । ततोऽनन्तानुबन्ध्याख्या क्रोधायेषु नियोजितः ॥ (ख) जैन सिद्धान्त से पृ. १०२ (ग) कर्मप्रकृति से (घ) सत्यं तत्राविनाभाविको बन्धं सत्योदयं प्रति । द्वयोरन्यतरस्यातो विवक्षायां न दूषणम् । -पंचाध्यायी (उत्त.) १/४0 (ङ) मिथ्यात्वेन सहोदीयमानाः कषायाः सम्यक्त्वं घ्नन्ति । अनन्तनुवन्धिता च सम्यक्त्व-संयमी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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