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________________ ३०६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) कर्म के उदय से. जीव को शुद्ध दर्शन की ओर रुचि भी नहीं होती, तो अरुचि भी नहीं होती। मिश्रमोहनीयकर्म को एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार समझाया गया है। जैसे-नारिकेल द्वीप (जहाँ नारियल के सिवाय अन्य खाद्यान्न पैदा नहीं होता) में उत्पन्न व्यक्ति ने अन्न के बारे में न तो देखा हो और न सुना हो तो उसे अन्न के प्रति न तो रुचि (राग) होती है, और न अरुचि (द्वेष); किन्तु वह तटस्थ रहता है। इसी प्रकार जिस जीव के मिश्रमोहनीय कर्म का उदय होता है, उसे वीतराग-प्ररूपित धर्म पर न तो रुचि (राग) होती है और न अरुचि-अश्रद्धा (द्वेष)। अर्थात्-उसे ऐसी दृढ़ श्रद्धा नहीं होती है कि वीतराग ने जो कुछ कहा है, वह सत्य है, विश्वसनीय है, और न अश्रद्धा ही होती है कि वह असत्य है, अविश्वसनीय है। वीतराग और सरागी, इन दोनों को तथा इन दोनों के कथन को वह समान रूप से ग्राह्य मानता है। मिश्रमोहनीयग्रस्त जीव न तो सत्य धर्म की गवेषणा करता है, और न ही उसके प्रति आकर्षण होता है, न ही विकर्षण। उसकी स्थिति दोलायमान रहती है। वह किसी भी. बात पर दृढ़तापूर्वक विश्वास नहीं करता और न अविश्वास ही प्रगट करता है। उसकी बुद्धि में ऐसी दुर्बलता होती है।' यद्यपि इस मिश्रदशा में अज्ञान (मिथ्याज्ञान) का समावेश नहीं होता, परन्तु इस कर्म में अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय न रहने से आत्मा में कुछ शुद्धता और मिथ्यात्वमोहनीय का उदय होने से कुछ अशुद्धता रहती है। इसीलिए मिश्रमोहनीय कर्म के पुद्गल अर्धविशुद्ध माने गए हैं। वे ऐसे मादक द्रव्य के समान होते हैं, जिसका कुछ भाग शुद्ध और कुछ अशुद्ध होता है। जैसे-दही और गुड़ को परस्पर इस तरह से मिलाने पर कि फिर उन दोनों को पृथक् न किया जा सके, तब उस गुड़ मिले दही का स्वाद कुछ मीठा और कुछ खट्टा आता है। वैसे ही मिश्रमोहनीय के परिणाम केवल सम्यक्त्वरूप या केवल मिथ्यात्वरूप न होकर दोनों के मिले-जुले होते हैं। अर्थात्-एक ही काल में सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप मिश्रित परिणाम रहते हैं। इस दशा वाले जीव की श्रद्धा कुछ सच्ची और कुछ मिथ्या पाई जाती है। यद्यपि मिश्रदशा का उदयकाल बहुत थोड़ा-अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण होता है। शुद्ध दशा में से पतित होने पर थोड़ा जो बीच का समय होता है, उसे ही मिश्रमोहनीय-अवस्था कही जाती है। मिश्रमोहनीय का उदयकाल समाप्त होते ही या तो वह जीव मिश्र में से शुद्ध दशा में आ जाता है, अथवा अशुद्ध दशा में चला जाता है। यही मिश्रमोहनीय का स्वरूप और कार्य है।२ -कर्मग्रन्थ प्रथम गा. १६ १. (क) ज्ञान का 'अमृत से, भावांशग्रहण पृ. २८९ । (ख) कर्म प्रकृति से पृ. २३ (ग) मीसा न रागदोसो जिणधम्मे अंतमुह जहा अने। नालियर-दीव-मणुणो ॥ (क) ज्ञान का अमृत से पृ. २८९ (ख) दहि-गुडमिव वा मिस्स पुहभावे नेव कारिदु सक्छ । एवं मिस्सयभावो सम्मा-मिच्छोत्ति णादव्यो । (ग) जैनदृष्टिए कर्म से पृ. ६३ -गोम्मटसार (जी.) २२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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