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________________ २७४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) करते हैं, ईर्ष्यावश उन्हें तिरष्कत और बहिष्कृत करने का प्रयास करते हैं। उनके प्रति द्वेष, और रोष रखते हैं, उनकी निन्दा करते रहते हैं, ऐसे लोग ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध करके अपने लिये भविष्य में ज्ञानप्राप्ति के द्वार बन्द कर लेते हैं, वे विद्या या .. ज्ञान के प्रकाश से वंचित ही रह जाते हैं, वर्तमान में भी, और भविष्य में भी। (३) ज्ञान को छिपाना-विद्या के क्षेत्र में कई व्यक्ति ऐसे मिलते हैं, जिनके दिमागों में इतनी संकीर्णता तथा हृदय की इतनी तुच्छता होती है कि वे किसी दूसरे धर्म-सम्प्रदाय, जाति, प्रान्त या राष्ट्र या प्रतिद्वन्द्वी के बालक या जिज्ञासु व्यक्ति को जिज्ञासाबुद्धि से कुछ पूछना-जानना चाहता है, तो वे यह बालक या जिज्ञासु मेरे प्रतिद्वन्द्वी का है या अन्य सम्प्रदाय का है, पढ़-लिखकर अच्छे अंक प्राप्त कर उत्तीर्ण हो जाएगा, या तरक्की कर लेगा, अपने भविष्य को उज्ज्वल बना लेगा तो हमारी जाति, धर्मसम्प्रदाय या अपने प्रान्त, भाषा, परिवार के व्यक्ति को कोई नहीं पूछेगा, यह जानकर उसे पढ़ाने या पढ़ने देने से टालमटूल कर देते हैं, अपने ज्ञान को छिपा लेते हैं हमें यह नहीं आता, यह कहकर शिक्षण संस्थाओं में तो यह है ही, साधसंस्था जैसी पवित्र संस्थाओं में भी कई ऐसे सम्प्रदायान्ध कट्टर साधु मिलते हैं, जिनसे किसी शास्त्र के किसी स्थल या प्रसंग के बारे में पूछा जाता है तो जानते-बूझते हुए भी अपनी ज्ञानसम्पदा को छिपा लेते हैं। शास्त्र का ज्ञाता होते हुए भी अनजान बनकर जिज्ञासु व्यक्ति को ईर्ष्यावश, तेजोद्वेषवश नहीं बताया जाता। इस प्रकार के व्यक्ति ज्ञान का खुले हाथों दान न करके छिपाने का प्रयत्न करते हैं तो जानावरणीय कर्म का बन्ध कर लेते हैं। (४) गुरुदेव या ज्ञानदाता के नाम को छिपाना-अध्यात्मजगत् में ज्ञानदाता या गुरुदेव का महत्वपूर्ण स्थान है। जो गुरुदेव शिष्यवर्ग को ज्ञान की ज्योति देकर जीवन को आलोकित करते हैं, उनके अन्तर्नेत्रों को ज्ञान का प्रकाश प्रदान करते हैं, उन ज्ञानदाता या गुरु के नाम का गोपन करना महापाप है। जिन गुरुओं की कृपा से ज्ञानादि में उन्नति के सोपान पार करते हुए एक दिन जो व्यक्ति अपने गुरु से भी आगे बढ़ जाते हैं, जनता उनकी पूजा-प्रतिष्ठा करती है, श्रद्धा से उनके चरणों में नतमस्तक होती है, ऐसे व्यक्तियों को अपनी बढ़ी हुई प्रतिष्ठा को देखकर अहंकर (श्रुतमद) का नशा इतना चढ़ जाता है, वे अपने गुरु मानने से जी चुराते हैं, गुरुदेव का नाम पूछने पर वे उनका नाम बताने से कतराते हैं, इधर-उधर की बात बनाकर उपकारी गुरुदेव का नाम छिपा लेते हैं, मन में लज्जानुभूति करते हैं। ऐसे व्यक्ति ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध कर लेते हैं। अपने हाथों से वे ज्ञान ज्योति को बुझा देते (५) ज्ञानप्राप्ति में विघ्न उपस्थित करना-कतिपय व्यक्तियों की बौद्धिक संकीर्णता इतनी अधिक बढ़ी-चढ़ी होती है कि वे दूसरों की उन्नति, प्रगति और अभिवृद्धि को १. ज्ञान का अमृत से सारांश उद्धृत पृ. २३६-२४० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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