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उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-१ २७३ (१) ज्ञान का अपमान-ज्ञान या विद्या की आशातना या अवमानना=अवज्ञा करना, उसकी महत्ता के प्रति विद्रोह करना ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध का प्रथम कारण है। ३६३ पाषण्ड मतों में अज्ञानवादियों का स्वरूप भी इसी प्रकार का था। वे एकान्तरूप से अज्ञान को ही श्रेयस्कर मानते थे।
संसार में कतिपय व्यक्ति ऐसे भी हैं, जिनकी यह आस्था और निष्ठा बन गई है कि पढ़े-लिखे व्यक्ति ही झगड़ों के मूल हैं, वे ही व्यर्थ विवाद और विघटन पैदा करते हैं। जहाँ ज्ञान का प्रकाश नहीं होता, वहाँ किसी प्रकार का झंझट या वादविवाद नहीं होता। पहले के स्त्री-पुरुष कम पढ़े-लिखे होते थे, इसलिए वे बड़े सुखी थे, परस्पर प्रेमभाव काफी था, आपसी वैर-विरोध और झगड़े बहुत कम थे। न इतने वकील थे, न इतने स्कूल थे। ज्यों-ज्यों विद्या बढ़ी, त्यों-त्यों विपत्तियाँ और कठिनाइयाँ बढ़ती गईं। विद्या और ज्ञान के प्रति विद्रोह गृहस्थों में ही नहीं, कतिपय साधु-सन्तों में भी यह भ्रान्ति जड़ जमाई हुई है। __जैन धर्म दिवाकर पू. आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज एक बार एक साधु-आश्रम में पहुँचे। वहाँ के मुख्य सन्त से विद्याध्ययन-सम्बन्धी बात चली तो उन्होंने आवेशपूर्ण स्वर में इस बात का डटकर विरोध किया कि “विद्या बड़ी खराब वस्तु है। हम तो उसे आश्रम के निकट भी नहीं आने देते। विद्या जैसी हानिप्रद कोई अन्य वस्तु नहीं है। धर्म-सम्प्रदाय, भाषा, प्रान्त, राष्ट्र, जाति, वर्ण आदि को लेकर आपसी सिरफुटौव्वल इसी विद्या के कारण होते हैं इत्यादि।" आचार्य श्री ने उन्हें शान्ति से, प्रेम से समझाया कि विद्या या ज्ञान तो जीवन का दीपक है, अज्ञानान्धकार का नाशक एवं परमज्योति है। विद्या या सम्यक्ज्ञान तो वैर विरोध को नष्ट करके समभाव और आत्मौपम्य भाव के उच्च सोपानों पर चढ़ने की प्रेरणा देता है। दुरुपयोग-सदुपयोग तो व्यक्ति पर निर्भर है, किन्तु सच्चा ज्ञान परस्पर संघर्ष या विवाद नहीं सिखाता, वह व्यक्ति को विनयी, नम्र, सरल और समन्वयी बनाता है। अतः जो विद्या या ज्ञान के प्रति विद्रोह एवं विरोध की भावना रखते हैं, ज्ञानवान हो जाने से अमुक व्यक्ति हमारी गुलामी नहीं करेंगे, इस दृष्टि से विद्यालय ज्ञानशाला या ज्ञान केन्द्र बंद करा देते हैं, या खुलने नहीं देते, विरोध करते हैं, वे ज्ञानद्रोही ज्ञानावरणीय कर्म का बन्धन करते हैं, भविष्य में इसके फलस्वरूप वे ज्ञान सम्पदा से बिलकुल खाली रह जाते हैं।
(२) ज्ञानवान् का अपमान करना-इस संसार में कई लोग ऐसे भी हैं, जो श्रुतसम्पदा, ज्ञान की थोड़ी-सी पूंजी या विद्याधन पाकर गर्वोन्मत्त हो जाते हैं, उनके दिमाग में यह भूत सवार हो जाता है कि हमारे पास जितना ज्ञान है, उतना किसी के पास नहीं, ऐसे लोग ज्ञानवान् व्यक्ति को देखकर या ज्ञानी व्यक्ति की प्रशंसा या प्रसिद्धि सुनकर मन ही मन कुढ़ते-जलते हैं, वे अपनी उच्चता या शास्त्रज्ञता का ढिंढोरा पीट कर अन्य विद्वानों या ज्ञानीजनों का अपमान करते हैं, उन्हें बदनाम
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