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________________ (२८) कर्म की व्यवस्था के अन्तर्गत कहते हैं। पूर्व तप से संचित कर्म ही फल देते हैं, इसीलिए कर्म के परिणाम को दृष्टिगत रखना चाहिए। कर्मफल कभी टल नहीं सकता। इसीलिए पवित्र कर्म करना चाहिए। फलं कर्मायत्तं किममरगणैः किंच विधिना । नमस्तत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति ॥ वने रणे शत्रु जलाग्नि मध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा । . सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि ॥ ___(नीति शतक- ९५-९८) इस प्रकार हम देखते हैं कि सभी नीतियों ने कर्म तत्व और कर्म फल पर विचार किया है। स्वामी कालिकानन्द का मत है कि 'एक ही के फल कई महीने तथा कई जन्मों तक भी चलते हैं। स्वप्न में जो विषय भोग सुख दुःखादि होते हैं वह भी कर्म फल हैं। मानस कमों का फल स्वप्न है। जाग्रत कर्म फल भोग के मध्य में अर्थात उसके उपाय स्वरूप से जाग्रत स्थूल शरीराभिमान होता है। स्वप्न शरीराभिमान स्वप्न कर्म फल भोग करने पर होगा।' (पंचेश्वर पत्रिका फरवरी १९९३) इसके पूर्व कि हम जैन धर्म व पुनर्जन्म आदि पर विचार करें, अन्य धर्मों पर भी विहंगम दृष्टिपात करना अनुचित नहीं होगा। इससे कर्म-विज्ञान की व्यापकता और प्रामाणिकता अनुमोदित होगी। मसीही धर्म में कर्म की मान्यता है। पोलुस का कथन है कि अन्त में ईश्वर हर व्यक्ति को उसके कमों से पहचानेगा। कर्म का न्याय अदृष्ट के हाथों में है। इस धर्म में कर्म, विश्वास और प्रायश्चित्त पर बल दिया गया है। ईसामसीह के भाई याकूब ने कहा कि मनुष्य विश्वास के साथ कमों से भी धर्मी ठहरता है। विश्वास के साथ कर्म आवश्यक है। इस धर्म में आत्मा और शरीर के कर्मों का निर्वचन किया गया है। आत्मा के कर्म हैं-प्रेम, आनन्द, धैर्य, परोपकार, संयम और विनय । बाइबल में कर्म-फल की अनेक पुरा कथाएं हैं, जिनमें लाजर, अय्यूब और जन्मान्ध डाकू आदि की कथाएँ मुख्य हैं। कर्म के साथ प्रभु का अनुग्रह भी आवश्यक है। इस प्रकार कर्म, विश्वास और अनुग्रह मुख्य हैं। ईसाई धर्म ग्रन्थों में शुभ कमों और नैतिक आचरण पर बल दिया है। कुछ उदाहरण स्पष्ट करेंगे। कोन (x१११-३-७) में कहा गया है जो प्रेम, शान्ति, और रीति पर चलता है, वह अधर्म से आनन्दित नहीं होता-वह स्थिर रहता है। इसी ग्रन्थ में अन्यत्र अपने सभी कर्मों को ईश्वरार्पण करने को कहा गया है। यही बात गल (पंचम २२-२३) में भी कही गयी है। आत्मा का फल है प्रेम, आनंद, शान्ति, सौजन्य, विश्वास और परिमिताचार । कर्मफल के लिए कहा गया है कि सुकर्म करने से हम थक न जाएँ-हमें कातर नहीं होना चाहिए, ठीक समय पर हमें इनका फल प्राप्त होगा (वही-६२) अच्छे कर्मों में सदा प्रवृत्त रहो। लूक (vi Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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