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________________ (२७) उत्पाढ्यमाप्यं संस्कार्य विकार्य च क्रियाफलम् । नैवं मुक्तिर्यतस्तस्मात् कर्म तस्या न साधनम् ॥ (नैष्कर्म्य सिद्धि १.५३) आगे उनका कथन है कि कामनाहीन नित्य कर्म द्वारा चित्त शुद्धि अवश्य होती है, जिससे बिना किसी प्रतिबन्ध के जीव आत्म स्वरूप को पहचान लेता है। सकाम कर्म असुरत्व की प्राप्ति कराता है। (गीता भाष्य १८-१०) उन्होंने कर्म को सर्वतोभावेन स्वीकार किया है। कर्म से वासना उत्पन्न होती है, वासना से संसार । अतएव संसार के उच्छेदन के निमित्त कर्म का निर्हरण अनिवार्य है। यह निर्हरण योग, ध्यान, सत्संग, जप आदि से होता है। विज्ञान दीपिका में उनका कथन है कर्मतो योगतो ध्यानात् सत्संगाज्जापतोऽर्थतः । परिपाका व नोकाच्च कर्म निर्हरणं जगुः ॥ (विज्ञान दीपिका २२ डा. बलदेव उपाध्याय द्वारा उद्धृत) स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती ने “वेदान्त बोध" में कर्म को इस प्रकार संक्षेप में व्याख्यायित किया है, "ज्ञान और कर्म के क्षेत्र विविक्त हैं। ब्रह्म विचार-जनित ज्ञान साधन है और कर्म जीवन को सर्वांगीण उत्कर्ष प्रदान करता है कर्म निर्माण विभाग है और ज्ञान प्रमाण, वासनावान कर्म का अधिकारी है और निर्वासनिक ज्ञान का । कर्म कर्तृ तन्त्र है और ज्ञान वस्तु तन्त्र। कर्म साध्य का निर्माण करता है, ज्ञान साक्षात्कार । कर्म-ज्ञान और ज्ञान में अन्तर है-कर्म का कोई प्रमाण नहीं है। भामतीकार कहता है “वस्तुसिद्धिः विचारेण न क्वचित् कर्म कोटिमिः"। - अन्य दर्शनों में कर्म की विवेचना न करके अब हम स्मृतियों में कर्म संबंधी विचार प्रक्रम का अवलोकन करें। मनुस्मृति के मत में मन, वाणी व शरीर से निष्पादित कर्म शुभाशुभ फलदायक होते हैं। कर्म से ही मनुष्य को विभिन्न गतियां प्राप्त होती हैं। सात्विक, राजसिक व तामसिक भावना से किए गए कर्म भी तदनुसार फल देते हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिए छः कर्म आवश्यक है-वेदाभ्यास, तप, ज्ञान, संयम, अहिंसा और गुरु सेवा। वैदिक कर्म से आत्म ज्ञान प्राप्त होता है-यह भी प्रवृत्ति और - निवृत्ति मूलक है। प्रवृत्त्यात्मक कर्म से देवगति और निवृत्त्यात्मक से मोक्ष प्राप्त होता है। (मनुस्मृति १२, अध्याय श्लोक ३, ८१, ८३, ८५, ९०)। __शुक्रनीति में कहा है कि कर्म का फल अनिवार्य है, उसका भोग करके ही वह समाप्त होता है। अनिष्ट फलदायक कर्म से बचना धर्म है। अन्तःकरण से सत् फलदायी कर्म करना चाहिए। भर्तृहरि भी अपनी नीति में कर्मफल पर विचार करके कहते हैं कि विधाता भी कर्म के अनुसार फल देते हैं। वे ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य को भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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