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________________ उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-१ २६९ उनके समस्त गुणों और पर्यायों सहित, तथा सर्व प्रकार के भावों को एक समय में (युगपत्) जान लेता है। भूत, भविष्य और वर्तमान के त्रिकाल विषय तथा कोई भी परिवर्तन उससे छिपे नहीं रहते। केवलज्ञान का कोई भेद-प्रभेद नहीं है, न ही इसमें विशेषता-न्यूनता, तरतमता तथा घट्टता या कनिष्ठता है। इसकी उज्ज्वलता या स्पष्टता में कोई अन्तर नहीं, और न ही समय या स्थल का संकोच या वृद्धि-हानि है। इसलिए इसका एक ही प्रकार है। केवलज्ञानी भगवान् के दस अनुत्तर दूसरी कोई भी वस्तु जिससे बढ़कर न हो, अथवा जो सबसे बढ़कर हो, उसे अनुत्तर कहते हैं। केवलज्ञानसम्पन्न भगवान् की दस बातें अनुत्तर होती हैं-(१) अनुत्तर ज्ञान-ज्ञानावरणीय कर्म के सर्वथा क्षीण हो जाने से केवलज्ञान का प्रादुर्भाव होता है, जिससे बढ़कर कोई ज्ञान नहीं है। (२) अनुत्तरदर्शन-दर्शनावरणीय या दर्शनमोहनीय का आत्यन्तिक क्षय हो जाने से केवलदर्शन प्रकट होता है, वह अनन्त दर्शन होने से अनुत्तर दर्शन है। (३) अनुत्तर-चारित्र-चारित्रमोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय से इसकी (क्षायिक व यथाख्यात चारित्र की) उत्पत्ति होती है, इस दृष्टि से उनका चारित्र भी अनुत्तर है। (४) अनुत्तर तप-केवलज्ञानी के शुक्लध्यानादि रूप सर्वोत्कृष्ट तप होता है, जो अनुत्तर है। (५) अनुत्तर वीर्य-वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से उन्हें अनन्तवीर्य प्राप्त होता है, जो अनुत्तर है। (६) अनुत्तर क्षान्ति-उनकी क्षमा एवं सहिष्णुता अनुत्तर होती है। (७) अनुत्तर मुक्ति-केवलज्ञान सम्पन्न के सब प्रकार के लोभों से मुक्ति-सर्वथा उन्मुक्ति होती है, जो अनुत्तर होती है। (८) अनुत्तर आर्जवकेवलज्ञानी की ऋजुता-सरलता अनुत्तर होती है। (९) अनुत्तर मार्दव-केवलज्ञानी की मृदुता और निरभिमानता अनुत्तर होती है। (१०) अनुत्तर लाघव-केवलज्ञानी का लाघव (हलकापन) अनुत्तर माना जाता है, क्योंकि ज्ञानावरणीय आदि चार आत्मगुणघाती कर्मों का क्षय हो जाने के कारण इन पर जन्म-मरणरूप संसार का बोझ नहीं रहता।२ केवलज्ञान सर्वोत्तम लब्धि है शुभ अध्यवसाय तथा उत्कृष्ट तप, संयम के आचरण से उस-उस कर्म का क्षय या क्षयोपशम होने से आत्मा में जो विशेष शक्ति उत्पन्न होती है, उसे लब्धि कहते हैं। ये लब्धियाँ३ आगमों में २८ प्रकार की बताई गई हैं। उनमें से कुछ लब्धियाँ इस प्रकार हैं। जैसे-आमीषधि लब्धि, विपुडौषधिलब्धि, खेलौषधि-लब्धि, जल्लौषधिलब्धि, सर्वौषधि-लब्धि, संभिन्न श्रोतो-लब्धि, अवधि-(ज्ञान) लब्धि, ऋजुमति (ज्ञान) १. (क) ज्ञान का अमृत से, पृ. २२९ (ख) कर्मप्रकृति से, पृ. ९ २. ज्ञान का अमृत से पृ. २२९-२३० . ३. २८ लब्धियों का विशद स्वस्लप जानने के लिए, देखे-जैन सिद्धान्त बोलसंग्रह छठा भाग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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