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________________ २६८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) मनोविज्ञान से बिलकुल अलग है। मनःपर्यायज्ञानी अनुमान नहीं लगाता, वह प्रत्यक्ष जानता है। मनोवैज्ञानिक मिथ्यादृष्टि भी हो सकता है, लेकिन मनःपर्यायज्ञानी निश्चित रूप से सम्यक्त्वी और संयमी ( मुनि) ही होता है। अतः इन दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। ' केवलज्ञान तथा केवलज्ञानावरणीय कर्म : स्वरूप, कार्य, स्वामी ज्ञानावरणीय कर्म की ५ उत्तर प्रकृतियों में केवलज्ञानावरणीय अन्तिम उत्तर प्रकृति है। जो शक्ति (कर्म) केवलज्ञान की ज्योति को आवृत कर लेती है, पर्दा बनकर आत्मा पर छा जाती है, उसे केवलज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। यह ज्ञानावरणीय कर्म का पांचवाँ और अन्तिम भेद है। "केवलज्ञान वह है, जो ज्ञान इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना त्रिकाल एवं त्रिलोकवर्ती समस्त मूर्त-अमूर्त ज्ञेय पदार्थों को एक साथ हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष जानने की शक्ति रखता है। " २ अथवा त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त चराचर वस्तुओं को युगपत् जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं । "यह ज्ञान सम्पूर्ण, समग्र, निरावरण, प्रतिपक्ष-रहित और सर्वपदार्थगत होता है। " ३ केवलज्ञान अन्य सभी ज्ञानों से विलक्षण, प्रधान, उत्तम और परिपूर्ण होता है। यह समस्त द्रव्यों की समस्त पर्यायों को जानता है। केवलज्ञान के सामने अन्य सब ज्ञान नगण्य हैं । केवलज्ञान एक समुद्र है, जिसमें मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्याय - ये सब ज्ञान समा जाते हैं। केवलज्ञान आत्मा की सबसे महत्तम ज्योति है। अनन्तसूर्य भी एकत्रित हो जाएँ, तब भी उन सबकी ज्योति केवलज्ञान की ज्योति की समानता नहीं कर सकती। जैसे- हजार पावर के बल्ब के सामने २५, ६० या १०० वाट के बल्बों का कोई मूल्य नहीं होता, इसी प्रकार केवलज्ञान के सामने मति आदि ज्ञानों की ज्योति का कोई मूल्य या महत्व नहीं होता । मतिज्ञान से लेकर मनःपर्याय चारों ज्ञान क्षायोपशमिक हैं, अतः वे विशुद्ध हो सकते हैं, किन्तु विशुद्धतम नहीं हो सकते, जबकि केवलज्ञान क्षायिक और विशुद्धतम होता है। केवलज्ञान केवल (अकेला), नित्य, निरावृत, शाश्वत और अनन्त होता है, जबकि शेष क्षायोपशमिक मतिज्ञान आदि वैसे नहीं हैं। मतिज्ञान आदि चारों क्षायोपशमिक ज्ञानों के अवान्तर भेद होते हैं, किन्तु केवलज्ञान का कोई भी अवान्तर भेद नहीं होता। वह अकेला एक ही होता है। केवलज्ञान के द्वारा केवलज्ञानी महापुरुष घट-घट के ज्ञाता होते हैं। संसार का छोटा-बड़ा कोई भी पदार्थ समस्त पर्यायसहित उनके ज्ञान से ओझल नहीं रह पाता । मोहनीय कर्म के क्षय होने पर तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों के निःशेष हो जाने पर केवलज्ञान प्रकट होता है । ४ केवलज्ञानी सम्पूर्ण रूपी- अरूपी द्रव्य, १. तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (उपाध्याय केवलमुनि) से, पृ. ६० २. सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य । ३. संपुण्णं सु समग्गं केवलमसवत्तं सव्वभावगयं । लोयालोयं वितिमिदं केवलणाणं मुणेयव्वं ॥ ४. मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तराय क्षयाच्च केवलं । Jain Education International For Personal & Private Use Only - तत्त्वार्थ सूत्र १/३० - कर्मप्रकृति ४२ - तत्त्वार्थसूत्र १०/१ www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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