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२६४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) से वह वस्तु को जाती-आती या नष्ट होती देख सकता है, परन्तु उस वस्तु के विषय में प्राणी के मन में चल रहे विचार या उनमें होने वाले परिवर्तनों, उतार-चढ़ावों को वह नहीं जान सकता। जबकि मनःपर्यायज्ञानी संज्ञी पंचेन्द्रिय समनस्क प्राणी के मन में उठते एवं बदलते हुए भावों-परिणामों और विचारों को, उनके रूपी होने के कारण जान-देख सकता है। यही अवधिज्ञान और मन पर्यायज्ञान में अन्तर है। द्रव्यादि की अपेक्षा अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान में अन्तर
'तत्त्वार्थसूत्र' में अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान का अन्तर बताते हुए कहा गया है-इन दोनों में विशुद्धिकृत, क्षेत्रकृत, स्वामिकृत और विषयकृत अन्तर पाया जाता है। मनःपर्यायज्ञान अवधिज्ञान की अपेक्षा विशुद्धतर है; यानी अन्तर्विशुद्धि अवधिज्ञानी से अधिक होती है। क्योंकि मनःपर्यायज्ञान अवधिज्ञान की अपेक्षा अपने विषय को बहुत गहराई से, विशदरूप से जानना है। अवधिज्ञान का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर समग्र लोक है, जबकि मनःपर्यायज्ञान का क्षेत्र तो मानुषोत्तर पर्वत पर्यन्त ही है। अवधिज्ञान के स्वामी चारों गतियों के जीव हो सकते हैं, जबकि मनःपर्यायज्ञान के स्वामी केवल संयत (संयमी) मानव ही हो सकते हैं। अवधिज्ञान का विषय कतिपय पर्याय-सहित रूपी द्रव्य है, पर मनःपर्यायज्ञान का विषय तो केवल उसका अनन्तवाँ भाग है, वह भी संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जान सकता है। अर्थात्-अवधिज्ञान के द्वारा सब प्रकार के पुद्गल द्रव्य ग्रहण किये जा सकते हैं, परन्तु मनःपर्यायज्ञान के द्वारा केवल मनरूप बने हुए मूर्तद्रव्यों (पुद्गलों) और उसमें भी मानुषोत्तर क्षेत्र के अन्तर्गत ही ग्रहण किये जा सकते हैं। यानी मनःपर्यायज्ञान अवधिज्ञान के बराबर मूर्तद्रव्यों का साक्षात्कार नहीं कर सकता। इसी कारण मनःपर्यायज्ञान का विषय अवधिज्ञान के विषय का अनन्तवां भाग है। मनःपर्यायज्ञान अपने विषय की सूक्ष्मताओं को भली-भांति जानता है, इसलिए विशुद्धतर कहा गया है, फिर भी वह अपने ग्राह्य द्रव्यों के सम्पूर्ण पर्यायों को नहीं जान सकता। अर्थात्-अवधिज्ञान का दर्शन होता है, मनःपर्याय ज्ञान का नहीं; क्योंकि मनःपर्यायज्ञान अवधिज्ञान की तरह वस्तु का सामान्यरूप ग्रहण नहीं करता, वह विशेषरूप को ही अपना विषय बनाता है।२ यद्यपि मनःपर्यायज्ञान द्वारा साक्षात्कार तो केवल चिन्तन-प्रवृत्त मूर्त मन का ही होता है, किन्तु बाद में होने वाले अनमान से उस मन के द्वारा चिन्तन किये गये मूर्त-अमूर्त सभी द्रव्य जाने जा सकते हैं।
-तत्त्वार्यसूत्र १/२६
१. जैनदृष्टिए कर्म से पृ. १०७ २. (क) विशुद्धि-क्षेत्र-स्वामि-विषयेभ्योऽवधि-मनःपर्याययोः ।
(ख) तत्त्वार्थसूत्र, व्याख्या (उपाध्याय केवलमुनि) से पृ. ६१ (ग) ज्ञान का अमृत (पं. ज्ञानमुनिजी) से, पृ. २१७ ।। (घ) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (प. सुखलालजी) से, पृ. ३०
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