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________________ उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-१ २४९ मतिज्ञान : स्वरूप, भेद और बोधग्रहणविधि यद्यपि श्रोत्रेन्द्रिय (कान), चक्षुरिन्द्रिय (आँख), घ्राणेन्द्रिय (नाक), रसनेन्द्रिय (जीभ) और स्पर्शेन्द्रिय (त्वचा) एवं मन (मन, बुद्धि, चित्त और हृदय) से जो ज्ञान होता है, उसे व्यावहारिक जगत् में प्रत्यक्ष कहते हैं, परन्तु जैनदर्शन ने प्रत्यक्ष ज्ञान उसी को माना है-जो इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना सीधा (डायरेक्टDirect) आत्मा से हो। यद्यपि निश्चय दृष्टि से ज्ञान तो आत्मा का प्रमुख अनुजीवी गुण है। अतः जो भी ज्ञान होता है, वह आत्मा से ही होता है, किन्तु आत्मा से जो ज्ञान होता है, वह अव्यक्त होता है, वह प्रगट होता है-विभिन्न इन्द्रियों और मन से ही। यही कारण है कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को परोक्ष कहा है। मतिज्ञान का व्यत्पत्तिलभ्य अर्थ है-जिससे मनन हो, अथवा जो मनन करे, वह मतिज्ञान। पांचों इन्द्रियों और मन द्वारा जिससे वस्तु का निश्चित बोध हो, या उसका मनन हो, वह मतिज्ञान है। इसका दूसरा नाम आभिनिबोधिक भी हैं। अभिमुख अर्थात्-योग्य देश में व्यवस्थित नियत पदार्थ को आत्मा इन्द्रिय और मन के द्वारा जिस परिणाम विशेष को जानता है-अवबोध करता है, वह आभिनिबोधिक ज्ञान है। मतिज्ञान का शास्त्रीय लक्षण है-मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम तथा इन्द्रियों और मन के अवलम्बन से द्रव्य का एकदेश रूप से होने वाला अवबोध-ज्ञान। मतिज्ञान होने में मतिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम अन्तरंग कारण है, और बाह्य कारण है-इन्द्रिय और मन के माध्यम से वस्तु के साथ सन्निकर्ष।२ ___ मतिज्ञान के अपेक्षा से अनेक भेद शास्त्रों और ग्रन्थों में बताये हैं। उनमें एक अपेक्षा से ३३६ भेद होते हैं, उनमें औत्पातिकी आदि चार बुद्धियों को मिलाने से ३४0 भेद होते हैं। मतिज्ञान के ३४० भेदों का विवरण मतिज्ञान के ३४0 भेद इस प्रकार होते हैं-मतिज्ञान श्रोत्रेन्द्रिय (कान), चक्षुरिन्द्रिय (नेत्र), घ्राणेन्द्रिय (नाक), रसनेन्द्रिय (जीभ) और स्पर्शेन्द्रिय (शरीरगत त्वचा) इन पांच इन्द्रियों तथा मन (मन, बुद्धि, चित्त, हृदय आदि अन्तःकरण) से होता है। इसलिए इन छह कारणों से जन्य होने से मतिज्ञान के ५+१=६ भेद हुए। फिर इनके प्रत्येक के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के रूप में चार-चार भेद होने से मतिज्ञान के २४ भेद हुए। १. उदय में आये हुए कर्म का क्षय और अनुदीर्ण अंश का विपाक की अपेक्षा उपशम होना, उदय में न आना क्षयोपशम कहलाता है। -सं. २. (क) पंचमिदिन्द्रियैर्मनसा च यदर्थ-ग्रहणं तन्मतिज्ञान। (ख) अभिमुख-योग्यदेशे व्यवस्थित, नियतमर्थमिन्द्रियद्वारेण बुध्यते-परिच्छिनन्ति आत्मा येन ___ परिणाम-विशेषेण, स परिणाम-विशेषो ज्ञानापरपर्याय आभिनिबोधिकम्।। (ग) कर्मप्रकृति (आ. जयन्तसेनविजयजी म.) से पृ. ५ (घ). मनन मतिः, मन्यतेऽनेन वा मतिः। । -धवला Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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