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________________ प्रकृतिबन्ध : मूल प्रकृतियाँ और स्वरूप २०५ अधिकांशतया परिणमन करने का होता है। किसी का स्वभाव अन्य प्रकृति के रूप में परिणमन करने का होता है। ___इसका मतलब यह नहीं समझना चाहिए कि विभिन्न बद्ध कर्मवर्गणाओं के एक सरीखे सात या आठ विभाग हो जाते हैं; अपितु उस बद्ध कर्मवर्गणा में जो विशिष्ट स्वभाव होता है, प्रायः तद्रूप (उस प्रकृति के रूप) में परिणमन होता है। शेष प्रकृतियों में सिर्फ न्यून अंश मिल जाता है। जैसे-बादाम में वैधक दृष्टि से विशेषतया मस्तिष्क को पोषण करने का गुण है; केवल थोड़ा-सा भाग रक्त, मांस आदि का पोषण करता है। इसी प्रकार बद्ध कर्मवर्गणा भी अधिकांशतया किसी विशिष्ट प्रकृतिरूप में परिणमित होती है, शेष प्रकृतियों के हिस्से में उसका थोड़ा-सा भाग जाता है।' युगल कर्मप्रकृतियों में दो में से एक के हिस्से में प्रकृति परिणमन इसमें इतना विशेष समझना चाहिए कि जो कर्मप्रकृतियाँ युगलरूप हैं, उन दोनों में से एक के ही हिस्से में विशिष्ट प्रकृति-परिणमन होता है। जैसे-कोई भी कर्म एक साथ हास्य और शोक, अथवा रति और अरति, इन दोनों में परिणत नहीं होता। तीन वेद (स्त्री-पुरुष-नंपुसक-वेद-काम) में से मात्र एक वेद के रूप में ही परिणमन होता जीव के योग-उपयोग द्वारा चित्र विचित्र कर्म कर्मप्रकृतियों की कर्मशरीर में निष्पत्ति जिनेन्द्र वर्णीजी के अनुसार-जीव जैसा-जैसा चित्र-विचित्र योग और उपयोग करता है, उसके निमित्त से वैसी-वैसी ही चित्र-विचित्र शक्तियाँ या प्रकृतियाँ उस कार्मण-शरीर में पड़ जाती हैं। कुछ कर्मवर्गणाएँ किसी एक प्रकृति को और दूसरी किसी प्रकृति को धारण कर लेती हैं। जिस प्रकार एक ही वृक्ष काष्ठ, पत्र, पुष्प, फल आदि के रूप में अनेक जातीयता को प्राप्त हो जाता है, अथवा जिस प्रकार एक ही यह स्थूल शरीर, हाथ, पैर, जीभ, कान आदि के रूप में चलने-फिरने, ग्रहण करने, बोलने, सुनने, देखने आदि रूप अनेक शक्तियों या प्रकृतियों को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार एक ही यह कार्मणशरीर विभिन्न प्रकृतियों को प्राप्त होकर अनेक अंगों या भेदों वाला हो जाता है। अदृश्य कर्म के कार्य-विशेष से तत्कारणभूता प्रकृति का अनुमान यद्यपि कर्म तथा उनके प्रकृति, स्थिति आदि बन्धविशेष इन्द्रिय-प्रत्यक्ष नहीं हैं, तथापि उनके निमित्त से होने वाले कार्य अर्थात्-अपने अन्तरंग भाव, शरीर तथा संयोग-वियोग आदि सभी के प्रत्यक्ष हैं। इन पर से उनकी कारणभूता प्रकृतियों का १. कर्म अने आत्मानो संयोग (अध्यायी) से, पृ. २०-२१ २. कर्म अने आत्मानो संयोग, पृ. २० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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