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________________ २०४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) वगैरह रूप, तथा मनुष्य आदि गति, यश-अपयश, दु:स्वर - सुस्वर आदि जो विकार दिखाई देते हैं, वह नामकर्म के कारण हैं। आत्मा का सातवाँ गुण अगुरुलघुत्व है। इसी गुण के कारण आत्मा न तो उच्च है, न ही नीच है, फिर भी हम देखते हैं, अमुक व्यक्ति उच्च कुल में, और अमुक व्यक्ति नीच कुल में जन्म लेता है। इस प्रकार उच्च-नीच कुल का जो व्यवहार होता है, वह गोत्रकर्म के कारण है। आत्मा का आठवाँ गुण अनन्तवीर्य है। इस गुण के कारण आत्मा अनन्त अतुल शक्तिमान् है। फिर भी इस समय उस अतुलशक्ति का अनुभव क्यों नहीं होता ? अन्तराय कर्म इस शक्ति को दबा देता है। इस प्रकार आठों ही कर्म आत्मा के आठ गुणों को क्रमश: दबा कर आत्मा को विकृत करने के स्वभाव वाले हैं। ' एक ही कर्म : अनेकविध स्वभाव, प्रकृतिबन्ध के सन्दर्भ में वैसे तो कर्म एक ही प्रकार का है, परन्तु अध्यवसाय - विशेष से जीव द्वारा एक ही बार में गृहीत कर्मपुद्गल - राशि में एक साथ अध्यवसायिक शक्ति की विविधता के अनुरूप अनेक स्वभाव निर्मित होते हैं। यद्यपि वे स्वभाव अदृश्य होते हैं, तथापि उनका परिणमन उनके कार्य प्रभाव को देखकर किया जा सकता है। एक या अनेक जीवों पर होने वाले कर्म के असंख्य प्रभाव एवं फल अनुभव में आते हैं। वास्तव में इन प्रभावों के उत्पादक स्वभाव भी असंख्यात हैं। फिर भी संक्षेप में वर्गीकरण करके उन सभी को मुख्यतया आठ भागों में विभक्त किया गया है। २ प्रकृतिबन्ध के सन्दर्भ में इन आठों को मूल प्रकृतियों का बन्ध कहा गया है। गृहीत कर्मपुद्गल -परमाणुओं का आठ प्रकृतियों में परिणमन कैसे ? दूसरे प्रकार से भी प्रकृतिबन्ध के सन्दर्भ में कर्मपुद्गल परमाणुओं के एक जत्थे ( स्कन्ध) का आठ प्रकृतियों में पृथक्-पृथक् बंध जाने का कारण बताते हुए कहा गया है कि आहाररूप में ग्रहण किये हुए पुद्गल - परमाणु रक्त, मांस, मज्जा, अस्थि, शुक्र आदि विभिन्न धातुओं के रूप में परिणमित हो जाते हैं, वैसे ही मन-वचन-काया की क्रिया, प्रवृत्ति या चंचलता के योग से आकर्षित कर्म-वर्गणाएँ उन-उन वर्गणाओं के स्वभावानुसार मूल एवं उत्तर प्रकृति के रूप में परिणमित हो जाती हैं। जैसे, कितनी ही विशिष्ट खाद्य पदार्थों में विशेषतया रक्तरूप में परिणमन करने का, कितने ही भोज्य पदार्थों में शुक्ररूप में परिणमन करने का विशिष्ट स्वभाव होता है; वैसे यहाँ भी गृहीत कर्मवर्गणाओं में से किसी का विशिष्ट स्वभाव एक विशेष प्रकृति के रूप में १. बंध विहाणे, (भूमिका) से भावग्रहण, पृ. ३७-३८ २. तत्त्वार्थ सूत्र, विवेचन (पं. सुखलालजी), पृ. १९५-१९६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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