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________________ १७४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) बंधे हैं, उनके स्वभाव-निर्माण की। प्रदेशबन्ध के रूप में जब वे कर्मपरमाणु एकीभूत हो जाते हैं, तत्पश्चात् ही कार्यभेद के अनुसार वे आठ वर्गों में बँट जाते हैं। कौन-सा कर्म, किस स्वभाव का होगा, इस प्रकार की व्यवस्था को प्रकृतिबन्ध कहते हैं। अर्थात्-गृहीत कर्म-परमाणुओं का ज्ञानावरण (जिन कर्मों से आत्मा की ज्ञान शक्ति आवृत होती है) इत्यादि अनेक रूपों में परिणत होना प्रकृति-बन्ध है। प्रदेशबन्ध में कर्म-परमाणुओं के परिमाण का निर्णय होता है, जबकि प्रकृतिबन्ध में गृहीत कर्मपरमाणुओं की प्रकृति यानी स्वभाव का निर्णय होता है। भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले कर्मों की भिन्न-भिन्न परमाणु-संख्या होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो-भिन्न-भिन्न कर्म-प्रकृतियों के विभिन्न कर्म-प्रदेश होते हैं। जैन कर्मशास्त्रों में इस प्रश्न पर भी विचार किया गया है कि किस कर्म-प्रकृति के कितने प्रदेश होते हैं और उनका तुलनात्मक अनुपात क्या है ? कर्मबन्ध की तीसरी अवस्था : रसबन्ध कर्मबन्ध की तीसरी अवस्था है-कर्मरूप से गृहीत पुद्गल-परमाणुओं के कर्मफल की रसशक्ति के निर्माण की। कौन-से कर्म में, कितनी रस-शक्ति है, इस व्यवस्था को रसबन्ध या अनुभाग-बन्ध कहते हैं। कर्मफल देने की अर्थात्-कर्म-विपाक की तीव्रता-मन्दता का निश्चय आत्मा के रागद्वेषरूप या कषायरूप अध्यवसाय की तीव्रतामन्दता के अनुसार होता है। बन्ध होने के साथ ही कषाय की तीव्रता-मन्दता के अनुसार रसबन्ध निर्मित हो जाता है। कर्मबन्ध की चौथी अवस्था : स्थितिबन्ध . कर्मबन्ध की चौथी अवस्था है-गृहीत कर्मपरमाणुओं के स्थिति-काल की। कौन-सा कर्म, कितने काल तक आत्मा के साथ रह पाएगा, इस काल-सीमा के निर्णय की अवस्था या व्यवस्था को स्थितिबन्ध कहते हैं। बद्धकर्म की आत्मा के साथ कषाय की तीव्रता-मन्दता के अनुसार स्थिति निर्मित होती है।' कर्मबन्ध के साथ ही चार अवस्थाएँ स्वतः निष्पन्न होती हैं । ये चारों अवस्थाएँ या व्यवस्थाएँ कर्मबन्ध के साथ ही स्वतः निष्पन्न हो जाती हैं। तात्पर्य यही है कि जीव द्वारा कर्मपुद्गल ग्रहण किये जाने पर वे कर्मबन्ध के रूप में परिणत हो जाते हैं, इसका फलितार्थ यही है कि उसी समय उसमें (बन्ध-सम्बन्धित) पूर्वोक्त चारों अंशों या अंगों का निर्माण हो जाता है; और वे चार अंश या अंग ही कर्मबन्ध के चार रूप हैं। उदाहरणार्थ-बकरी, गाय, भैंस आदि द्वारा खाया हुआ घास आदि पदार्थ जब दूध के रूप में परिणत हो जाता है, तब उसमें मधुरता का स्वभाव १. (क) कर्मवाद से भावांशग्रहण, पृ. ४४ (ख) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा. ४ से भावग्रहण, पृ. १४-१५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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