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________________ कर्मबन्ध के अंगभूत चार रूप १७३ अथवा काया से किसी प्रकार की प्रवृत्ति करता है, तब चारों ओर से कर्मयोग्यपरमाणुओं का आकर्षण होता है। जितने क्षेत्र अर्थात् प्रदेश में उसकी आत्मा विद्यमान रहती है, उतने ही प्रदेश में विद्यमान कर्म-परमाणु उसके द्वारा उस समय ग्रहण किये जाते हैं, अन्य नहीं।' फिर रागद्वेष के कारण बन्ध होता है। यहाँ कर्म के आकर्षित करने तथा बन्ध होने तक तो आत्मा स्वतंत्र है। जिस प्रकार दवा गले से नीचे न उतारने तक जीव स्वतंत्र है, परन्तु दवा निगलने के बाद वह दवा जिस स्वभाव की है, उस स्वभाव के अनुसार काम स्वयं करती है, तथा जितनी मात्रा में ली गई है, या जितनी बार ली गई है, उस अनुपात में वह उस रोग को ठीक करती है। जितने समय में उसे रोग को ठीक करना होता है, तथा तीव्रता - मन्दता के अनुसार काम करना होता है, वह स्वयं करती है। उसी प्रकार कर्मबन्ध होने के साथ ही आत्मा के योग और कषाय के अनुसार स्वतः ही कर्मबन्ध की अंगरूप या अंशरूप चार अवस्थाएँ या व्यवस्थाएँ निष्पन्न होती हैं। वे चार अवस्थाएँ हैं - प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । २ कर्मग्रन्थ आदि से सम्मत पुरानी परम्परानुसार इन चारों का क्रम पूर्वोक्त प्रकार से ही है, किन्तु वास्तव में क्रम इस प्रकार होना चाहिए - ( १ ) प्रदेशबन्ध, (२) प्रकृतिबन्ध, (३) रसबन्ध और ( ४ ) स्थितिबन्ध | कर्मबन्ध की पहली अवस्था : प्रदेशबन्ध पहली अवस्था या व्यवस्था है - कर्मपरमाणुओं के आने की तथा उनके संगृहीत होने की। कर्मपुद्गलों के ग्रहण के समय वे अविभक्त होते हैं, ग्रहण के पश्चात् वे आत्म-प्रदेशों के साथ एकीभूत होते हैं। यह एकीभाव की व्यवस्था ही प्रदेशबन्ध है। प्रदेशबन्ध होने के साथ ही कर्मप्रदेशों का आठ कर्मों में यथायोग्य विभाजन होना भी प्रदेशबन्ध का कार्य है। आशय यह है कि प्रवृत्ति (योग) की तरतमता के अनुसार परमाणुओं की संख्या में भी तारतम्य होता है। प्रवृत्ति की मात्रा में अधिकता होने पर कर्म-परमाणुओं की संख्या में भी अधिकता होती है, तथा प्रवृत्ति की मात्रा में न्यूनता होने पर कर्म-परमाणुओं की संख्या में भी न्यूनता होती है। अर्थात् जीव के द्वारा गृहीत कर्म-पुद्गल-परमाणुओं के समूह ( जत्थे) का कर्मरूप से आत्मा के साथ बद्ध हो जाना, कर्मबन्ध की प्रथम अवस्था या व्यवस्था है। इसे कर्मविज्ञान की भाषा में 'प्रदेशबन्ध ' कहते हैं। कर्मबन्ध की दूसरी अवस्था : प्रकृतिबन्ध कर्मबन्ध की दूसरी अवस्था या व्यवस्था है - जो कर्मपरमाणु आत्मप्रदेशों के साथ १. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ४ से भावांशग्रहण, पृ. १४ । २. (क) प्रकृति - स्थित्यनुभाव- प्रदेशास्तद्विधयः । (ख) बंधो पयइठिइ-रस-पएस त्ति । (ग) चउव्विहे बंधे प. तं. पगइबंधे, ठिइबंधे, अणुभावबंधे, पएसबंधे । Jain Education International For Personal & Private Use Only - तत्त्वार्थसूत्र ८/४ - कर्मग्रन्थ पंचमभाग, गा. २१ - समवायांग सम. ५ www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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