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________________ कर्मबन्ध के विभिन्न प्रकार और स्वरूप १६३ है, जिसमें उक्त स्कन्ध के अन्तर्गत सभी परमाणुओं की पर्याय बदलती है और वे ऐसी स्थिति में आ जाते हैं कि अमुक समय तक उनकी एक जैसी पर्याय होती रहती है। स्कन्ध अपने आप में कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं है, अपितु वह अमुक परमाणुओं की एक विशेष अवस्था है और आधारभूत परमाणुओं के अधीन ही उसकी दशा रहती है। पुद्गलों के बन्ध में यही रासायनिकता है, कि उस अवस्था में उनका स्वतंत्र विलक्षण परिणमन न होकर प्रायः एक जैसा परिणमन होता है। किन्तु आत्मा और कर्म-पुद्गलों के बन्ध में ऐसा रासायनिक मिश्रण हो ही नहीं सकता। यह बात अलग है कि कर्मस्कन्ध के आ जाने से आत्मा के परिणमन में विलक्षणता आ जाती है। आत्मा के निमित्त से कर्मस्कन्ध की परिणति विलक्षण हो जाती है, परन्तु इतने मात्र से इन दोनों के सम्बन्ध (बन्ध) को रासायनिक मिश्रण नहीं कह सकते; क्योंकि जीव (आत्मा) और कर्म के बन्ध में दोनों की एक जैसी पर्याय नहीं होती। जीव की पर्याय चेतन रूप होती है और पुद्गल की होती है-अचेतनरूप । पुद्गल का परिणमन रूप, रस, गन्ध और स्पर्शादि रूप से होता है और जीव का चैतन्य के विकासरूप में। यदि उनका रासायनिक मिश्रण होता है तो प्राचीन बद्ध कर्मपुद्गलों से नवीन कर्मपुद्गलों का ही होता है, आत्मप्रदेशों से नहीं।' राग और द्वेष पुद्गलों की तरह स्निग्ध-रूक्ष होने से बन्ध होता है जहाँ राग होता है, वहाँ प्रायः प्रतिपक्षी के प्रति द्वेष भी होता है। भले ही वह द्वेषभाव बहुत सूक्ष्म हो। इसी प्रकार जहाँ द्वेष होता है वहाँ किसी के प्रति राग भी होता है। राग भी सूक्ष्म होता है तो द्वेष भी विद्वेष, वैर-विरोध घृणा, या अरुचि के रूप में भी होता है। कोई भी चीज तभी जुड़ती है, जब उसमें रूखा और चिकना दोनों पदार्थ हों। दीवार तभी बन पाती है, जब सीमेंट (पानी के साथ मिलाई हुई) की चिकनाई (स्निग्धता) हो, साथ ही रेत का रूखापन (रूक्षता) हो। चिकना और रूखा दोनों पदार्थ जल के साथ मिलने से दीवार आदि जुड़ पाती है। केवल आटा और चीनी हो तो लड्डू नहीं बंधते, उसमें स्निग्ध पदार्थ के रूप में घी की आवश्यकता होती है। दोनों चीजों को मिलाने से ही लड्डू बंध सकते हैं। इसी प्रकार भावरूप में राग और द्वेष इन दोनों के आत्मप्रदेश के साथ मिलने से बन्ध होता है। राग स्निग्धता है, और द्वेष रूक्षता है।२ इसी कारण राग की चिकनाई और द्वेष के रूखेपन से बन्ध प्राप्त होता है। ये चिकनाई जैसे जीव में पाई जाती है-राग और द्वेष के रूप में, वैसे ही ये दोनों चीजें पुद्गल में भी पाई जाती हैं। इसीलिए तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है-'स्निग्ध-रुक्षत्वाद् बन्धः'-स्निग्धता और रूक्षता से बन्ध होता है। इसका फलितार्थ यह हुआ कि जीव और पुद्गल दोनों में जब स्निग्धता और रूक्षता पाई जाए तो दोनों सजातीय हो गए। १. जैनदर्शन (डॉ. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य) से पृ. २२५ २. मुक्ति के ये क्षण से, पृ. ९९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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