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________________ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) १६२ द्रव्यबन्ध की प्रक्रिया ज्ञेय को पकड़ने पर फिर वह यह अच्छा है यह बुरा है; इस प्रकार राग-द्वेष के परिणाम करता है, तो तीसरी बात पैदा हो जाती है। जैसे- ऑक्सीजन और हाईड्रोजन दोनों गैस मिलने पर तीसरा पदार्थ - पानी बन जाता है। इसी प्रकार हल्दी और चूना दोनों को मिलाने पर तीसरी चीज - लाल रंग बन जाती है। ऐसे ही अमूर्तिक जीव जब मूर्तिक पदार्थों का आश्रय लेता है, तो वह मूर्तिक बन जाता है। आशय यह है कि जीव जैसे ही मूर्तिक परिणाम करता है, वैसे ही वह भाव से मूर्तिक पुद्गल बन बैठा। जहाँ मूर्तिक परिणामों का आधार है, वहाँ वह (जीव ) एक क्षेत्रावगाह होकर कर्म-पुद्गलों के साथ बंध जाता है। यह द्रव्यबन्ध हुआ। दूसरे शब्दों में कहें तो, जीव जिस-जिस ढंग के मूर्तिक परिणाम करता है, पुद्गल द्रव्य भी उस ढंग के भाव से परिणमन करता है। फिर वह (कर्म) पुद्गल आकर आत्मप्रदेशों से चिपट जाएगा, यानी वे कर्म-पुद्गल-परमाणु एक क्षेत्रावगाह होकर बंध जाते हैं। यह हुई द्रव्यबन्ध की प्रक्रिया। भावबन्ध की प्रक्रिया भावबन्ध की प्रक्रिया इस प्रकार है- जीव ज्ञान में प्रतिबिम्बित होने वाले जिस किसी भी पदार्थ - (ज्ञेय) को पकड़ता है; पकड़ने के साथ ही राग-द्वेषरूप परिणाम होंगे। राग-द्वेष चिकनाहट है, इसलिए दोनों (आत्मा और कर्म पुद्गल) पृथक्-पृथक् • स्वभाव के होते हुए, बन्धन को प्राप्त हो जाते हैं। ' द्रव्यकर्मबन्ध और भावकर्मबन्ध का स्पष्टीकरण इसे जरा और स्पष्टरूप से समझ लें। कर्म दो प्रकार का है- द्रव्यकर्म और भावकर्म। गमनागमन रूप क्रिया द्रव्यकर्म है और परिणमनरूप क्रिया भावकर्म है। प्रयोजनवशात् पुद्गल को द्रव्यात्मक पदार्थ और जीव को भावात्मक पदार्थ माना गया है। इसलिये पुद्गल की पर्याय द्रव्यकर्म है और जीव की पर्याय भावकर्म है। दूसरे शब्दों में- पुद्गल की क्रिया द्रव्यप्रधान और जीव की भावप्रधान है। इसलिए पुद्गल कर्मवर्गणाओं के पारस्परिक बन्ध से जो स्कन्ध बनते हैं, उसका नाम द्रव्यकर्मबन्ध है, और जीव के उपयोग में रागादि के कारण ज्ञेयों के साथ जो बन्धन होता है, वह भावकर्मबन्ध है| २ पुद्गलाणुओं का परस्पर रासायनिक मिश्रण होता है, जीव और कर्म का बंध वैसा नहीं जब पुद्गलाणु परस्पर बन्ध को प्राप्त होते हैं, तब एक विशेष प्रकार के संयोग को प्राप्त होते हैं। उनमें स्निग्धता और रूक्षता के कारण एक रासायनिक मिश्रण होता १. मुक्ति के ये क्षण पृ. ९७ २. कर्मसिद्धान्त से पृ. ४३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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