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________________ १५८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) जीव और पुद्गल का विशिष्ट संयोगसम्बन्ध होता है, तादात्म्य सम्बन्ध नहीं यह निश्चित है कि दो पदार्थों के विशिष्ट सम्बन्ध के बिना बन्ध नहीं होता। द्रव्यबन्ध में आत्मा और पुद्गल का सम्बन्ध है। प्रश्न यह होता है कि जीव और कर्म-प्रदेशों (कर्मपुद्गलों) का सम्बन्ध कैसे हो सकता है? क्योंकि जीव अमूर्तिक है, और कर्मपरमाणु- पुद्गल मूर्तिक हैं। वे परस्पर कैसे बंधते है ? किन्तु द्रव्यबन्ध में आत्मा और कर्मपुद्गलों का सम्बन्ध है, वह तादात्म्यरूप या एकत्वरूप सम्बन्ध नहीं है, अपितु वह संयोगसम्बन्ध है, अथवा निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध है। तादात्म्य सम्बन्ध या एकत्व सम्बन्ध में दो में से एक की सत्ता मिट कर एक शेष रहता है, अथवा दो मिलकर एक दिखता है; पर यहाँ ऐसा नहीं होता। क्योंकि जीव और कर्म के बन्ध में दोनों की एक जैसी पर्याय नहीं होती । जीव की पर्याय चेतनरूप होती है, जबकि कर्मपुद्गल की अचेतनरूप। पुद्गल का परिणमन रूप, रस, गन्ध और स्पर्शादिरूप से होता है, जबकि जीव का परिणमन होता है-चैतन्य के विकास रूप से । ' " द्रव्यबन्ध और भावबन्ध भी दो-दो प्रकार का बन्ध भी कई प्रकार का होता है। सजातीय द्रव्यबन्ध और विजातीय द्रव्यबन्ध, इसी प्रकार सजातीय भावबन्ध और विजातीय भावबन्ध। जैसे- घी और आटे का बन्ध पुद्गल के साथ पुद्गल का सजातीय द्रव्यबन्ध है। किन्तु पुद्गल का जीव के साथ विजातीय बन्ध है। इसी प्रकार जीव का जीव के साथ भी बन्ध होता है। वह होता है-भाव से, अध्यवसाय से, अर्थात् राग, द्वेष या मोह से । उदाहरणार्थ - यह मेरा पुत्र है, यह तो अमुक का नालायक पुत्र है। इस प्रकार एक के प्रति राग और एक के प्रति द्वेष, यह सजातीय भावबन्ध होता है। विजातीय (पुद्गल) के साथ भी जीव का भावबन्ध भी होता है। जैसे- किसी व्यक्ति ने कहा- यह मेरा मकान है, यह मेरी दूकान है, इत्यादि, मोहभाव से विजातीय भावबन्ध है। भावबन्ध आँखों से दिखाई नहीं देता, परन्तु है वह पैरों में पड़ी हुई बेड़ी की तरह बहुत गाढ़ बन्धन । प्रायः प्रत्येक गृहस्थ के मन में अपने घर के प्रति आकर्षण होता है। वह कहीं भी चला जाता है, फिर भी उसे अपने घर की याद आती रहती है। (होम, स्वीट होम - Home, Sweet Home!) घर जैसा मधुर उसे पराया मकान नहीं लगता। वह घर के प्रति रागभाव से बंधा होता है। पुद्गल का पुद्गल के साथ या पुद्गल का जीव के साथ भावबन्ध नहीं होता, इसी प्रकार जीव का जीव के साथ द्रव्यबन्ध नहीं होता । भावबन्ध चाहे इन चर्मचक्षुओं से दिखता न हो, परन्तु है वह बहुत ही गाढ़। एक व्यक्ति के हाथ में पतंग की डोर है। पतंग आकाश में घूमती है, बहुत ऊँची चली जाती है। वह पतंग यों माने कि मैं स्वतंत्र हूँ; तो क्या वह स्वतंत्र है? नहीं, वह उस डोरी से बंधी हुई ( पराधीन) 3. जैनदर्शन ( डॉ. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य) पृ. २२४ 1. मुक्ति के ये क्षण से भावांशग्रहण, पृ. ९२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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