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________________ कर्मबन्ध के विभिन्न प्रकार और स्वरूप १५७ परिणाम मिलने से कार्मणवर्गणा के पुद्गलों का आकर्षण एवं ग्रहण होता है, फिर आत्मप्रदेशों के साथ उनका परस्पर मिलन–श्लेष होता है। इसी का नाम बन्ध है। जीव के द्वारा पुद्गलों को छेड़े जाने से परस्पर बन्धद्वय होता है संसार में जीव और पुद्गल दो द्रव्य हैं। वैसे तो अजीव में पांच प्रकार के द्रव्य हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल और पुद्गल। इनमें से धर्म, अधर्म, आकाश और काल के साथ जीव नहीं बंधता है। वह जब भी बंधता है, पुद्गल के साथ बंधता है। पूर्वोक्त चार द्रव्य तटस्थ हैं, वे जीव और पुद्गल दोनों को अपने-अपने गुण (स्वभाव) के अनुसार सहयोग की अपेक्षा हो तो सहयोग देते हैं, किन्तु जीव और पुद्गल, ये दोनों ही परस्पर बन्ध को प्राप्त होते हैं, क्योंकि जीव पुद्गल को छेड़ता है। छेड़ने के दो ढंग होते हैं। एक होता है-किसी चीज को भाव से उठा लेना, उसका मनमाना उपयोग करना, और दूसरा होता है-किसी चीज को हाथ से उठा लेना, मन के परिणामों से उस पर राग-द्वेष, मोह, ममत्व या कषाय करना। चीज को हाथ से (रागादिपूर्वक) उठाने पर भी और भाव से उठाने पर भी, दोनों तरीकों से बन्ध होता है। पहले को द्रव्यबन्ध और दूसरे को भावबन्ध कहा जाता स्पन्दनादि क्रिया धर्मास्तिकाय के निमित्त से, भावरूप क्रिया काल द्रव्य के निमित्त से जो क्रिया बाह्यरूप से हलन-चलन या स्पन्दन आदि के रूप में की जाती है, वह धर्मास्तिकाय द्रव्य के निमित्त से होती है, तथा भावरूप से करने की क्रिया कालद्रव्य के निमित्त से होती है। वस्तुतः जब मनुष्य भाव से पदार्थ को ग्रहण करता है, तब कर्म से बंध जाता है। द्रव्यबन्ध और भावबन्ध का लक्षण . निष्कर्ष यह है कि बन्ध मुख्यतया दो प्रकार होता है-द्रव्यबन्ध और भावबन्ध। जिन राग, द्वेष, मोह आदि विकारी भावों से कर्म का बन्ध होता है, उन भावों को भावबन्ध कहते हैं। कर्मपुद्गलों का आत्मप्रदेशों से सम्बन्ध होना द्रव्यबन्ध कहलाता है। भगवती सूत्र में माकंदिकपुत्र के प्रश्न के उत्तर में भगवान के दो प्रकार के बंध बताए हैं। १. मुक्ति के ये क्षण से भावांश ग्रहण, पृ. ९१-९२ २. (क) मुक्ति के ये क्षण से भावांशग्रहण, पृ. ९२ (ख) मागंदियपुत्ता ! दुविहे बंधे पण्णत्ते, त जहा-दव्वबंधे य भाव-बंधे य ।' -भगवती. १८/३/१0 सू. (ग) जैनदर्शन (डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य) से भावग्रहण, पृ. २२४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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