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________________ १४२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) बांधता है, तथा फलदान में शक्ति उत्पन्न करने में कारण बनता है। जबकि परिस्पन्दनरूप योग कों को आकर्षित करने तथा आत्मप्रदेशों तक लाने में निमित्त बनता है। ये दोनों ही मिलकर चारों प्रकार के कर्मबन्धों के कारण बनते हैं।' यहाँ एक प्रश्न 'धवला' में और उठाया गया है कि क्या योग और कषाय दो ही प्रत्यय आठ कमों के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप बत्तीस बंधों की कारणता को प्राप्त हो सकते हैं? उत्तर में कहा गया है कि छठे-सातवें गुणस्थान तक ही सात या आठ कर्म का बन्ध होता है, इसलिए वहाँ तक एकान्त बत्तीस बन्धों का अस्तित्व हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है, क्योंकि अशुद्ध पर्यायार्थिक ऋजुसूत्रनय में अनन्त शक्तिमान एक द्रव्य (आत्मा) में बत्तीस बन्धों का अस्तित्व तभी हो सकता है जब आयुष्यकर्म का बन्ध हो। आगे के गुणस्थानों में कषाय न होने से बन्ध होता ही नहीं। वे अबन्धक हैं।२ १. कर्मसिद्धान्त से भावांशग्रहण, पृ. ८२-८३ २. कधं दो चेव पच्चयो, अट्ठण्णं कम्माणं बत्तीसाणं पयडि-विदि-अणुभाग-पदेसबंधाणं कारणत पडिवज्जते? ण, असुद्ध-पज्जवहिए उजुसुदे अणंत-सत्ति-संजुदेग-दव्वत्यित्त पडिविरोहाभावादो। -धवला १२/४/२,८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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