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________________ बन्ध के संक्षेप-दृष्टि से दो कारण : योग और कषाय १४१ के रूप में सर्वांगपूर्ण बद्ध हो जाते हैं। यह ठीक है कि मन-वचन-काया के योगों की चपलता तो स्पष्ट प्रतीत होती है, किन्तु कषाय बाहर से स्पष्ट प्रतीत नहीं होता। वह कभी-कभी तीव्र-तीव्रतररूप में भड़कता है, तब तो उसके चिह्नों से प्रकट हो जाता है, किन्तु कभी-कभी वह अत्यन्त सूक्ष्मरूप में, केवल वासना या अमुक कामना के रूप में, अथवा धर्म-प्रभावना के बहाने प्रसिद्धि, प्रशंसा, प्रतिष्ठा आदि के रूप में छिपा रहता है। तब उसे स्थूलदृष्टि जन-समुदाय द्वारा पहचान पाना अत्यन्त कठिन होता है। परन्तु योग और कषाय-इन दोनों की करतूत है कि ये आत्मा को चारों प्रकार के बंधों के रूप में कस कर बांध देते हैं, जिनसे सहसा छुटकारा पाना दुष्कर होता है। अतः कर्मबन्ध-चतुष्टय में योग और कषाय, इन दोनों प्रमुख कारणों पर सांगोपांग विचार करके इनसे बचने और चंचलता एवं कषाय को अल्प-अल्पतर, या मन्द-मन्दतर करने का प्रयत्न करना चाहिए। वर्णीजी की दृष्टि में योग और कषाय के बदले योग और उपयोग वास्तव में देखा जाए तो जीव के भावों का निमित्त पाकर कर्म का सर्वांगपूर्ण बन्धन होता है। जीव के भाव दो प्रकार के हैं-योग और उपयोग। योग का अर्थ हैप्रदेश-परिस्पन्दन या क्रिया। और उपयोग का अर्थ है-शुभ, अशुभ और शुद्ध भाव या परिणाम। दूसरे शब्दों में कहें तो-जीव की द्रव्यात्मक पर्याय को योग कहते हैं, जो प्रदेश-परिस्पन्दन के रूप में या क्रिया के रूप में एक होते हुए भी मन, वचन और काय के निमित्त से तीन प्रकार का कहा जाता है। उपयोग भावात्मक पर्याय को कहते हैं, जो ज्ञान का परिणमनरूप होती है। वह परिणमन शुद्ध रूप भी होता है, अशुद्धरूप भी। अशुद्धरूप परिपामन के दो भेद हैं-शुभरूप, अशुभरूप। शुद्ध परिणमन में तो केवल जानना मात्र होता है; यानी साक्षीभाव से ज्ञाता द्रष्टा बनकर रहना मात्र होता है। जबकि अशुद्ध (शुभाशुभ) परिणमन राग-द्वेषादिरूप या प्रशमरति की भाषा में अहंकार-ममकार आदि भावरूप होता है। ये दोनों (शुद्ध-अशुद्ध) ही प्रकार के परिणाम या भाव उपयोग कहलाते हैं। इस प्रकार योग उसकी द्रव्य-पर्याय है, और उपयोग हैभाव-पर्याय। योग से प्रकृति और प्रदेशों में बन्ध होता है, तथा उपयोग से भावों में अर्थात्-अशुद्धोपयोग से स्थिति और अनुभाव में बन्ध होता है। सिद्धान्तानुसार भावात्मक कर्मबन्ध के निमित्त भावात्मक होने चाहिए तथा द्रव्यात्मक कर्मबन्ध के निमित्त द्रव्यात्मक । यही कारण है कि कर्मग्रन्थ, पंचसंग्रह, गोम्मटसार आदि कर्मविज्ञान के मूर्धन्य ग्रन्थों में योग से प्रकृति और प्रदेशों तथा उपयोग से स्थिति और अनुभाग-बन्ध बताया है। राग-द्वेषात्मक उपयोग को ही दूसरे शब्दों में 'कषाय' कहते हैं। इसलिए योग और उपयोग कहें या योग और कषाय कहें, दोनों ही मुख्यरूप से सर्वांगीण कर्मबन्ध में निमित्त हैं। रागद्वेषात्मक उपयोग या कषाय कर्म की स्थिति .. १. चेतना का ऊर्ध्वारोहण से भावांशग्रहण, पृ. १६१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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