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________________ १०२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) नहीं है। क्योंकि “जब तक मिथ्यात्व रहता है, तब तक शुभ-अशुभ सभी क्रियाओं को अध्यात्म में परमार्थतः पाप ही कहा जाता है। भले ही कोई व्यक्ति महाव्रत आदि का आलम्बन ले, या समितियों की उत्कृष्टता का आश्रय ले, तथापि वह व्यक्ति मिथ्यात्व नामक पाप से युक्त है।" मोक्षमार्गप्रकाशक में भी कहा गया है-"मिथ्यात्व के समान अन्य कोई पाप नहीं है।"१ वास्तव में जैनदर्शन में मिथ्यात्व को सबसे बड़ा पाप माना गया है। जहाँ अठारह पापस्थानों के नाम आते हैं, वहाँ १७ पापस्थान तो अपनी संज्ञा से अभिहित हुए हैं, किन्तु मिथ्यादर्शन के पीछे 'शल्य' शब्द जोड़ कर उसे शल्य (तीखे काटे) जैसा चुभने वाला माना गया है।२ बद्धजीव के कर्मों का निमित्त पाकर मिथ्यात्वादि होते हैं और मिथ्यात्वादि के निमित्त से कर्मबंध होता है। इस प्रकार कर्मबन्ध और मिथ्यात्वादि का कार्य-कारण भाव सिद्ध होता है। निष्कर्ष यह है कि कर्मबन्ध और मिथ्यात्व आदि की यह परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है, जिसे शास्त्रों में बीज-वृक्ष के न्याय से प्रतिपादित किया गया है। इस परम्परा की आदि नहीं है किन्तु अन्त हो सकता है। मिथ्यात्व को सबसे बड़ा पाप मानने का कारण यह भी है कि इसके प्रभाव से जीव निगोद में जाता है; क्षुल्लक अथवा क्षुद्रभव करता है। यद्यपि क्षुल्लकभव का समय अत्यल्प है-'एक श्वासोच्छ्वास में १७/ बार जन्म-मरण, तथापि निगोदअवस्था में जीव बहुत लम्बे समय तक रहता है, बार-बार जन्म-मरण करता ही रहता है। वहाँ से कदाचित् ही कोई जीव अकाम-निर्जरा के कारण निकल पाता है। निगोद में से किसी ऐसे जीव का निकलना ऐसा ही है, जैसे नदी के प्रवाह में बहते हुए असंख्य छोटे-छोटे कंकड़-पत्थरों में से कोई एक कंकड़ या पत्थर पानी की उत्ताल तरंगों के थपेड़ों से किनारे पर जा गिरे और जल के तीव्र वेग में बहने से बच जाए। मिथ्यात्व : संसार-परिभ्रमण का जनक ___ मिथ्यात्व जन्म-मरण के अनन्त-दुःखों की परम्परा को बढ़ाता है। इसीलिए मिथ्यात्व को संसार का मूल बताया गया है। सूत्रकृतांग सत्र में कहा गया हैमिथ्यादृष्टि अनार्य लोग मिथ्यात्व ज्वर से ग्रस्त होकर संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। इसीलिए पापों में सबसे बड़ा पाप और पाप का बीज मिथ्यात्व को कहा गया है। तथा मिथ्यात्व को भव-वृद्धि का कारण बताया गया है।३ -रत्नकरण्डक श्रावकाचार ३४ १. (क) अश्रेयश्च मिथ्यात्व-सम नान्यत् तनुभृताम् । (ख) आलम्बन्तां समितिपरता ते यतोऽद्यापि पापा । आत्माऽनात्मावगम-विरहात् सन्ति सम्यक्त्व-रिक्ताः ॥ (ग) मोक्षमार्ग प्रकाशक ८/३९३/३ २. सम्यग्दर्शनः एक अनुशीलन (अशोकमुनि) ३. मिच्छत्तं भव-बुड्ढि-कारणं । -समयसार २००/क-१३७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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