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________________ (१०) से उत्प्रेरित होकर मुनि श्री ने अपना अनमोल समय निकालकर यह कठिन कार्य सम्पन्न किया तदर्थ वे साधुवाद के पात्र हैं। उनका यह सहयोग चिरस्मरणीय रहेगा और प्रबुद्ध पाठकों के लिए भी उपयोगी होगा। मैं उनके आत्मीय भाव के प्रति हृदय से कृतज्ञ हूँ। इस लेखन-सम्पादन में जिन ग्रंथों का अध्ययन कर मैंने उनके विचार व भाव ग्रहण किये हैं, मैं उन सभी ग्रंथकारों/विद्वानों का हृदय से कृतज्ञ हूँ। . . ग्रन्थ की विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना डा. कल्याणमलजी लोढ़ा (पूर्व कुलपति जोधपुर विश्वविद्यालय) ने लिखी है। उनका वैदुष्य और सौमनस्य हम सबके लिए ही प्रमोद का विषय है। पुस्तक के शुद्ध एवं सुन्दर मुद्रण के लिए श्रीयुत श्रीचन्द सुराना का सहयोग तथा इसके प्रकाशन कार्य में परम गुरुभक्त उदारमना दानवीर डा. चम्पालालजी देसरड़ा की अनुकरणीय साहित्यिक रुचि भी अभिनन्दनीय है। जिसके कारण प्रस्तुत ग्रन्थ शीघ्र प्रकाशित हो सका है। मैं पुनः पाठकों से अनुरोध करता हूँ कि जैन धर्म के इस विश्वविजयी कर्म-सिद्धान्त को वे समझें और जीवन की प्रत्येक समस्या का शान्तिपूर्ण समाधान प्राप्त करें। समता, सरलता, सौम्यता का जन-जन में संचार हो, यही मंगल मनीषा आचार्य देवेन्द्र मुनि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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