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________________ आगमन-आसव, कर्म निरोध-संवर तत्त्वों पर बहुत ही विस्तार पूर्वक प्रकाश डाला है। प्राचीन धर्म ग्रन्थों के अलावा, वंशानुक्रम विज्ञान, मनोविज्ञान, परामनोविज्ञान आदि आधुनिक विज्ञान के अनुसंधान, प्रयोग आदि का भी सहारा लेकर कर्म-सिद्धान्त की वास्तविकता और व्यापकता पर चर्चा की है। अनेक प्राचीन, अर्वाचीन और आधुनिक उदाहरण तथा घटनाएं देकर भी कर्म की सत्ता और कर्मफल की सार्थकता बताने का प्रयास किया है। जिन पाठकों ने वे तीन भाग पढ़े हैं, उन्हें कर्म सिद्धान्त की काफी नई जानकारी मिली होगी, ऐसा मुझे विश्वास है। यह चौथा भाग, कर्मबन्ध की प्रक्रिया और उसके स्वभाव-प्रकृति के विषय पर विस्तृत प्रकाश डालता है। कर्मबन्ध के कारणों पर भी इसमें चर्चा है। और कौनसा कर्म क्या फल देता है। किस कर्म की क्या प्रकृति है, कितनी स्थिति है, किस प्रकार का उसका विपाक होता है। मन्द और तीव्र भावों के कारण एक ही कर्म किस प्रकार भिन्न-भिन्न फल देता है। आदि विषयों पर भी विवेचन किया है। वास्तव में मैं उन सभी पाठकों से अनुरोध करता हूँ जिन्होंने पूर्व के तीन भाग पढ़े हैं या नहीं पढ़े हैं, वे इस भाग को जरूर पढ़ें। किस प्रकार की प्रवृत्ति से कौन सा कर्म बंधता है, और उसका क्या. फल, कैसे उदय में आता है। इस संपूर्ण कर्म प्रक्रिया का विवेचन इस भाग में पढ़कर उन्हें कर्म की वैज्ञानिकता पर, इसकी अकाट्य और अनिवार्य सत्ता पर अवश्य विश्वास होगा और अशुभकर्म से विरत रहकर शुभ कर्म में प्रवृत्त होने की प्रेरणा भी मिलेगी। ऐसा विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ। . इस प्रासंगिक प्राक्कथन के साथ ही आज मैं अपने अध्यात्म नेता, श्रमण संघ के महान आचार्य राष्ट्रसन्त महामहिम स्व. श्री आनन्द ऋषि जी महाराज का पुण्य स्मरण करता हूँ जिन्होंने मुझे श्रमण संघ का दायित्व सौंपने के साथ ही यह आशीर्वाद दिया था कि-"अपने स्वाध्याय, ध्यान और श्रुताराधना की वृद्धि के साथ ही श्रमण संघ में आचार कुशलता, चारित्रनिष्ठा, पाप-भीरुता और परस्पर एकरूपता बढती रहे-इस दिशा में सदा प्रयत्नशील रहना। मैं उनके आशीर्वाद को श्रमण जीवन का वरदान समझता हुआ उनके वचनों को सार्थक करने की अपेक्षा करता हूँ. चतुर्विध श्री संघ से। । - मेरे परम उपकारी पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी महाराज का इन दिनों में स्वास्थ्य अनुकूल नहीं रहने से यद्यपि मैं सुदर प्रदेशों में विहार नहीं कर सका, यह बहुत से व्यक्तियों की शिकायत भी है, परन्तु संघ सेवा के साथ-साथ गुरु-सेवा करना भी मेरा एक धर्म है, मैं संघ-सेवा और गुरु-सेवा में सामंजस्य स्थापित करने की दिशा में अहर्निश प्रयलशील हूँ। ५. कर्म-विज्ञान जैसे विशाल ग्रंथ के सम्पादन में हमारे श्रमण संघीय विद्वद् मनीषी मुनिश्री नेमिचन्द्रजी महाराज का आत्मीय सहयोग प्राप्त हुआ है। मुझे संघीय कार्यों में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण समयाभाव रहा पर मेरे स्नेह सद्भावना पूर्ण अनुग्रह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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