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________________ कर्मबन्ध का मूल स्रोत : अध्यवसाय ७७ जाते हैं, और कुछ व्यक्ति प्रारम्भ में भी शुभ अध्यवसाय से भ्रष्ट - अस्त होते हैं और जीवन के अन्त तक अस्त ही रहते हैं। शास्त्रकार ने चारों भंगों के प्रतीक रूप में एक-एक उदाहरण प्रस्तुत किया है। जैसे - प्रथम भंग उदित - उदित में चातुरन्तचक्रवर्ती भरत महाराज, द्वितीय भंग- उदितअस्तमित में चातुरन्त चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त राजा, तृतीय भंग - अस्तमित- उदित में हरिकेश बल अनगार और चतुर्थ भंग - अस्तमित- अस्तमित में कालसौकरिक कसाई । चक्रवर्ती भरत चक्रवर्ती के वैभव, विशाल साम्राज्य तथा समृद्धि के स्वामी होते हुए भी शुभ अध्यवसायवश उससे निर्लिप्त तथा निर्ममत्व रहते थे। वही शुभ अध्यवसाय अन्त में शुद्ध अध्यवसाय में परिणत हुआ और वे केवलज्ञान- केवलदर्शन को और सर्वकर्ममुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हुए। इसके विपरीत चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त अपने पूर्वभव में संभूत नाम के साधु थे। शुभ और शुद्ध अध्यवसाय के फलस्वरूप शुभ कर्मबन्ध और कर्मों से सर्वथा मुक्त हो सकते थे, किन्तु जीवन के अन्त में उन्होंने • अपने तप-संयम के फल की लौकिक फलाकांक्षा के रूप में सौदेबाजी की। चक्रवर्ती पद प्राप्ति का निदान ( नियाणा) किया, अपने शुभ और शुद्ध अध्यवसाय को तिलांजलि देकर अशुभ अध्यवसाय किया, जिसके फलस्वरूप उन्होंने ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के भव में अशुभ कर्मबन्ध किया, उन्हें नरकगति का मेहमान बनना पड़ा । ' किन्तु तीसरे भंग के अधिकारी हरिकेशबल ने जीवन के प्रारम्भ में पूर्वबद्ध अशुभकर्मोदयवश चाण्डालकुल में जन्म लिया। वहाँ शुभ और शुद्ध अध्ययन करने का कोई निमित्त या वातावरण भी नहीं मिला। अतः प्रारम्भ में उनका उन्नत अध्यवसाय नहीं हुआ। अनुन्नतदशा ही रही, परन्तु बाद में एक पवित्र मुनि के निमित्त से उन्हें शुभ और शुद्ध अध्यवसाय का बल मिला। सकल चारित्र अंगीकार करके वे महामुनि अपने जीवन को तप और संयम के शुद्ध अध्यवसाय से उन्नत बना सके, जो भी शुभाशुभ कर्म बंधे हुए थे, उन्हें सर्वथा क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए। चतुर्थ भंग का धनी कालसौकरिक (कसाई) प्रारम्भ में अशुभ अध्यवसायों में पला- पुसा और उन्हीं में जीवन के अन्त तक रचा-पचा रहा। फलतः वह अशुभ (पाप) कर्मबन्ध के कारण नरक का अधिकारी बना । २ इसलिए चारों भंगों में निमित्त की अपेक्षा उपादान की प्रबलता और अपने-अपने अध्यवसायों की विशेषता है। १. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - ( १ ) उदितोदिते णाममेगे, उदितऽत्थमिते णाममेगे, अत्थमितोदिते णाममेगे, अत्थमिताऽत्थमिते णाममेगे । भरहे राया चाउरंत चक्कवट्टी णं उदितोदिते, बंभदत्ते णं राया चाउरंत चक्कवट्टी उदितऽत्थमिते, हरिएस-बले णं अणगारे अत्थमितोदिते, काले णं सोयरिए अत्यमिताऽत्यमिते । - स्थानांगसूत्र, स्था. ४, उ. ३, सू. ३६३ २. वही, स्थानांगसूत्र स्था, ४, उ. ३, सू. ३६३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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