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________________ ७६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) कोई. आनन्द नहीं आएगा। मैं तो वेश्या की महफिल में जाऊँगा, जहाँ संगीत, नृत्य रागरंग में आनन्द आएगा।" फलतः दोनों मित्र अपने-अपने मनोनीत स्थान में गएं परन्तु जो व्यक्ति संत का व्याख्यान सुनने गया था। व्याख्यान सुनते-सुनते उसके अध्यवसाय शुभ से अशुभ हो गए-अरे मैं कहाँ आ फंसा ! यहाँ तो रूखा-सूखा नीरस व्याख्यान है। मेरा मित्र वेश्या की महफिल में राग-रंग का आनन्द लूट रहा होगा जबकि वेश्या की महफिल में जाने वाले मित्र के अध्यवसाय अशुभ से शुभ में पलटे"अरे मैं यहाँ कहाँ नीच और अपवित्र स्थान में आ गया ! यहाँ तो यह वेश्या राग रंग और विषयवासना में फंसा कर सबका जीवन बर्बाद करती है, पैसा लूटती है से अलग ! मेरा मित्र पवित्र संतों के उत्तम विचार सुनकर अपना जीवन और विचार पवित्र कर रहा होगा ! मैं यहाँ नहीं आता तो अच्छा रहता।" पहले के अध्यवसाय अच्छे स्थान में रहते हुए भी बुरे हो गए और दूसरे मित्र वे अध्यवसाय बुरे स्थान में रहते हुए भी अच्छे हो गए। फलतः पहले को अशु कर्मबन्ध और दूसरे को शुभ कर्मबन्ध हुआ। दूसरे को अध्यवसाय की उत्तरोत्त शुद्धता होने से कोशावेश्या की चित्रशाला में चातुर्मासपर्यन्त रहने वाले स्थूलभद्र मुनि के समान संवर और निर्जरा (कर्मक्षय) का लाभ भी होने का अवकाश था।' निमित्त महत्वपूर्ण नहीं, महत्वपूर्ण है-उपादान इसलिए किसी वस्तुविशेष, व्यक्तिविशेष या स्थानविशेष का निमित्त मुख्य और महत्वपूर्ण नहीं है; महत्त्वपूर्ण है, व्यक्ति का अपना उपादान ( आत्मा)। यही कारण है कि शुभ और अशुभ से ऊपर उठकर शुद्ध अध्यवसायों या भावों में रमण करने वाले साधकों के लिए आगमों में स्थान-स्थान पर कहा गया है "संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।'२ "अमुक साधु संयम और तपश्चर्या से अपनी आत्मा को भावित करते (आत्मभावों में रमण करते) हुए विचरण करता है।" अतः अध्यवसाय में उपादान की ही महत्ता विशेष है। अध्यवसायों के आधार पर जीवन का उदय-अस्त __स्थानांग सूत्र में उदित और अस्तमित सूत्र की चतुर्भगी बताई गई है। उसका भावार्थ इस प्रकार है-कुछ व्यक्ति प्रारम्भ में उदित होते हैं और अन्त तक उदित (उन्नत-उच्च अध्यवसाय के युक्त) रहते हैं, कई व्यक्ति प्रारम्भ में तो उदित रहते हैं, किन्तु अन्त में अध्यवसाय से भ्रष्ट होकर अस्तमित हो जाते हैं। कुछ व्यक्ति प्रारम्भ में अस्त (अध्यवसाय से निम्न) रहते हैं, किन्तु बाद में उदित (अध्यवसाय से उन्नत) हो १. देखें, जवाहर किरणावली में दो मित्रों का दृष्टान्त २. देखें, अन्तकृद्दशांगसूत्र, भगवतीसूत्र आदि आगमों में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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